घृतार्थे गो घृतं ग्राह्यं, तदभावे तु माहिषम्।
आजं वा तदभावे तु साक्षात्तैलमपीष्यते।।
तैलाभावे गृहृतव्यं तैलं जर्तिल संभवम्।
तदभावे अतसि स्नेह: कौसुम्भा:सर्षपोद्भवा:।।
वृक्षस्नेहोद्भवो ग्राह्य: पूर्वालाभे पर:पर:।
तदभावे यवव्रीही: श्याम कान्यतमो भव:।।
अर्थात्,
शास्त्रों में जहाँ कहीं भी घृत शब्द आया है वहाँ उससे गाय का घृत ही समझना चाहिए।
यज्ञ - पूजन कार्य में "गोघृत" यह मुख्य कल्प है।
यदि गाय का घी सुलभ न हो तो भैंस का घी लेना चाहिए ।
यह भी न मिले तो बकरी या भेड़ का घी लेना चाहिए।
यदि ये न मिल सकें तो तिल के तेल का उपयोग करना चाहिए यज्ञ आदि में।
इसके अभाव में तिसी का तेल उपयोगी है।
तिसी का तेल न मिले तो फूल से उत्पन्न (सूरजमुखी आदि ) तेल ग्राह्य है।
इसके अभाव में सरसो का तेल ग्राह्य है।
सरसो का तेल भी यदि अलभ्य हो तो क्रमश: जौ, धान, साँवा और कोदो के भूसी से निकले तेल को ग्रहण करना चाहिए।
एक बात ध्यान रहे,सबसे पहले यत्न पूर्वक गाय के घी का ही ग्रहण करना चाहिए आलस्य , प्रमाद और वित्तशाठ्य(कंजूसी) छोड़कर यदि न मिले तो श्लोक में बताए गए क्रमानुसार प्रयोग करना चाहिए ।
🙏 साभार 🙏
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