तुलसीदास जी रचित गंगा स्तुति-
जय जय भगीरथ नंदिनी , मुनि चय चकोर – चंदनी ,
नर – नाग – विबुध – बंदिनी , जय जन्हू बालिका ।
विष्णु – पद सरोजरासी , ईस – सीस पर बिभासि ,
त्रिपथगासि पुण्यराशि , पाप – छालिका ॥१॥
अर्थ : हे भगीरथ नंदिनी , तुम्हारी जय हो , जय हो । तुम मुनियों के समूह रूपी चकोरों के लिए चंद्रिका रूप हो । मनुष्य , नाग और देवता तुम्हारी वंदना करते हैं । हे जन्हू की पुत्री , तुम्हारी जय हो ।
तुम भगवान विष्णु के चरण कमल से उत्पन्न हुई हो , शिवजी के मस्तक पर शोभा पाती हो । स्वर्ग , भूमि और पाताल इन तीनों मार्गों से तीन धाराओं में होकर बहती ही । पुण्यों की राशि और पापों को धोने वाली हो ।
विमल विपुल बहसि बारी , शीतल त्रयताप – हारी ,
भँवर बर बिभंगतर , तरंग – मालिका ।
पुरजन पूजोपहार , शोभित शशि धवलधार ,
भंजन – भव – भार , भक्ति – कल्पथालिका ॥२॥
अर्थ : तुम अगाध निर्मल जल धारण किए हो , वह जल शीतल है और तीनों तापों को हरने वाला है । तुम सुंदर भँवर और अति चंचल तरंगों की माला धारण किए हो ।
नगर वासियों ने पूजा के समय उपहार चढ़ाये उनसे चंद्रमा के समान तुम्हारी धवल धारा शोभित हो रही है । यह धारा संसार के जन्म मरण रूप भार का नाश करने वाली तथा भक्ति रूपी कल्पवृक्ष की रक्षा के लिए थाल्हा रूप है ।
निज तटबासी बिहंग , जल – थर – चर पशु – पतंग
कीट , जटिल तापस , सब सरिस पालिका ।
तुलसी तब तीर तीर , सुमिरत रघुवंश बीर ,
बिचरत मति देहि , मोह – महिष – कालिका ॥३॥
अर्थ : तुम अपने तीर पर रहने वाले पक्षी , जलचर , पशु ,न पतंग , कीट और जटाधारी तपस्वी आदि सबका समान भाव से पालन करती हो ।
हे मोह रूपी महिषासुर को मारने के लिए कालिका रूप गंगाजी , मुझ तुलसीदास को ऐसी बुद्धि दो जिससे वह श्री रघुनाथ जी का स्मरण करते हुए तुम्हारे तीर पर विचरा करे ।
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