॥ॐ श्रीः गणेशाय नमः॥
वक्र तुण्ड महाकाय सूर्यकोटि सम्प्रभ:।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येसु सर्वदा॥
निःसन्तान दम्पतियों के लिये संजीवनी
॥जीवित्पुत्रिका व्रत-कथा॥
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥1॥
यं ब्रह्मावरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैस्तवैः,
वेदैः साङ्ग पदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो,
यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः॥२॥
श्रीहरि नारायण, विद्यादात्री सरस्वती तथा वेद व्यासजी को प्रणाम है।
जिन परमेश्वर की ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र, मरुद्गण
और सभी देवता श्रद्धान्वित होकर स्तोत्रों से स्तुतिगान करते हैं,
जिन परमेश्वर का शिक्षा, सूत्र, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष,छन्द सहित वेदों द्वारा
पदक्रम उपनिषदों द्वारा सामवेदीय गुणानुवाद गाते हैं,
योगीजन ध्यानावस्था में जिन परमेश्वर के दर्शन
हेतु लालयित रहते हैं,और जिनके प्रारम्भ व अन्त को समस्त देवगण
और असुर भी नहीं जान सके, उन परमेश्वर को सादर नमस्कार है।।2।।
जीवित्पुत्रिका व्रत पूजन की तैय्यारी-
शुद्ध स्थान जैसे कि नदी सरोवर कुआं बावड़ी
समुद्र तट जहां भी आपको उचित लगे
साफ सफाई कर लें वहां और यदि उपलब्ध हो सके तो
एक गन्ना, (ईख, शुगरकेन) का पूरा पौधा पत्तियों सहित ले लें,
और उसे भूमि या गमले में लगा दें।
चौक पूर लें, रंगोली बना लें।
यथाशक्ति नैवेद्य (भोग) प्रसाद की व्यवस्था कर लें।
आप जिस परिवार, गांव, शहर या प्रदेश के हैं;
वहां के लोकाचार के अनुसार भी आप
अपने पूजन की तैयारी कर सकती हैं।
कपास के सूत्र में 16 गांठें लगा लें
और आपके पास जो 'जिउतिया' (जितिया) है,
यह सोना चांदी तांबा से भी बनती है,
इस जितिया को जीवित्पुत्रिका यंत्र भी कहा जाता है,
उसे 16 गांठ वाले सूत्र में पिरो लें।
एक लकड़ी का बाजोट, चौकी, पीढ़ा जो भी उपलब्ध है,
लेकर उस पर साफ पीला कपड़ा बिछा दें,
और उसके ऊपर जिउतिया (जीवित्पुत्रिका यंत्र) को स्थापित कर लें।
कुशा ले लें। कुशा से जीमुतवाहन की आकृति बनाकर के
उसी पीढे़ पर स्थापित कर लें।
एक सुपारी ले लें। सुपारी को चिल्हीका मान कर
वहीं पीढ़ा पर स्थापित कर लें।
इस स्थापना के बाद पूजन कार्य प्रारंभ करें।
जीमुतवाहन, चिल्हिका और जीवित्पुत्रिका
इन तीनों को हाथ जोड़कर प्रणाम करें तथा
आह्वान, आसान, पाद्य, अर्घ्य, आचमन,
नैवेद्य, वस्त्र, गंध, पुष्प, धूप-दीप
आदि के द्वारा पूजन कार्य प्रारंभ करें।
प्रातः स्नानादिकं नित्यकर्म समाप्यैकाग्रचित्तः
शुद्धेदेशे स्थित्वा देशकालौ सङ्कीर्त्य
स्वकृतमनोवाक्कायिक वाचिक
मानसिक-सांसर्गिक दुरितक्षयपूर्वक
पतिपुत्रकुटुम्बायुः सौभाग्यसमृद्धिहेतवे
जीवत्पुत्रिका व्रतोपवास तत्पूजां च करिष्ये।
अपने मन में यह निश्चित धारणा बना लें, कि आप
जीवित्पुत्रिका व्रत को अपने मन-मस्तिष्क अपनी वाणी
और अपने सांसारिक कार्यों की पवित्रता धारण करते हुए
इस व्रत, इस पूजन को पूर्ण करना है। जिससे कि हमारे पति,
पुत्र और कुटुंब की रक्षा हो, आयु वृद्धि हो, सौभाग्य की वृद्धि हो।
सौवर्णेन राजतेन ताम्रेण सूत्रेण कार्पाससूत्रेण
वा निर्मितां जीवत्पुत्रिकां तत्पार्श्वे
कौशञ्जीमूतवाहनं पीठे निधायाऽऽवाहयेत्।
तत्र मन्त्राः-
जीवत्पुत्रि समागच्छ गौरिरूपधरेऽनघे।
ईश्वरस्य प्रसादेन भाव सन्निहिता सदा॥
हे मां गौरी! आप जीवित्पुत्री रूपधारी हैं,
आप हमारा प्रणाम स्वीकार करें
तथा हमें अपनी कृपा प्रदान करें।
जीवत्पुत्रिके आवाहयामि स्थापयामि पूजयामि।
हे जीवित्पुत्री! हम आपका आवाहन करते हैं,
आप यहां आकर स्थापित हों और हमारी पूजा को स्वीकार करें।
एह्योहि नृपशार्दूल राजन जीमुतवाहन।
कृपया मेऽत्र सान्निध्यं कल्पेयश्व सदा प्रभो॥
जीमूतवाहन आवाहयाकम्।
हे राजा जीमुतवाहन! आप अत्यंत ही तेजस्वी और दयावान हैं,
कृपया हमारे इस पूजन में आप पधारें
और अपना आशीर्वाद हमें प्रदान करें।
तत्रैव
चिल्हि स्वस्थानतः शीघ्रं समागच्छाऽत्र सुव्रते।
पूजार्थं कुरु सान्निध्यं पतिं पुत्रांश्च रक्ष मे॥
हे चिल्हिका! आप अपने स्थान से शीघ्र ही यहां पर उपस्थित हों
और हमारे द्वारा किए जा रहे पूजा कार्य को स्वीकार करें।
इस पूजन के फलस्वरुप आप हमारे पति, पुत्र, कुटुंब को सुरक्षित रखें।
ऐसा ही वरदान हमें प्रदान करें।
शिवे शिवकरे नित्यमागत्यात्र स्थिता भव॥
धनाधन्यसुतायूंषि वर्धयस्व सदा मम॥
हे शिव और पार्वती! कृपया यहां आकर स्थित हों
और अपना आशीर्वाद हमें प्रदान करें,
जिससे हमारे घर का धन-धान्य, संतान, वंश समृद्ध हो।
सौम्य पुत्रस्य प्राप्त्यर्थं स्वामी जीवन हेतवे।
पूजयामी महाभाग चिल्हिके ते नमो नमः॥
रूप संपत्ति सौभाग्य वर्धनार्थ सदा मम।
दत्तमिमां पूजां गृहाण परमेश्वरि॥
पुत्र की प्राप्ति तथा पति का जीवन सुरक्षित हो
हमारा कुटुंब सुरक्षित हो हमारे वंश की अभिवृद्धि हो
हे चिल्हीका! हे जीमुतवाहन! हे जीवित्पुत्री! हम आपका पूजन करते हैं
तथा आपके द्वारा हमें रूप, संपत्ति, सौभाग्य वर्धन सदा प्राप्त होता रहे।
कृपया हमारी पूजा को स्वीकार करें।
हम अपने सामर्थ्यानुसार पूर्ण श्रद्धा के साथ
आपके पूजन को कर रहे हैं।
जीवित्पुत्रिकां जीवमूतवाहनं चिह्निकां च पूजयेत्।
जीवित्पुत्रिका, जीमुतवाहन और चिल्हीका का पूजन प्रारंभ करें।
आवाहनम्। आसनम्। पाद्यम्। अर्घ्यम्। आचमनम्।
स्नानम्। वस्त्रम्। उपवस्त्रम्। गन्धम्। पुष्पम्। धूपम्।
दीपम्। नैवेद्यम्। नमस्कारम्। प्रदक्षिणाम्।
षोडशोपचारैर्यथा-लब्धोपचारैर्वा तन्मन्त्रे सम्पूज्य।
मन्त्रपुष्पाञ्जलिं दद्यात्।
जीवत्पुत्रि महाभागे मम जीवन्तु पुत्रकाः॥
आयुर्वर्धय पुत्राणाम्पत्युश्च मम सर्वदा॥
नमस्ते नृप शार्दूल राजन् जीवमुतवाहन॥
पतिपुत्रजनोत्कर्षं वर्धयस्व जनेश्वर॥
चिल्ही त्वं सर्वतः श्रेष्ठे मम पुत्रान् प्रजीवय॥
तव प्रसादात्सर्वाश्च सुखसौभाग्यसंयुताः॥
इति सम्पूज्य हस्तेऽक्षतपुष्पाणि गृहीत्वा कथाश्रवणं कुर्यात्।
पूजन पूरा करके, हाथ में पुष्प अक्षत इत्यादि लेकर के बैठ जाएं
और कथा का श्रवण करें |
॥जीवित्पुत्रिका व्रत-कथा॥ -
कथा का पाठ करें।
प्रेम से बोलिए मां गौरी की जय!
कथा इस प्रकार है-
एकदा मुनयः सर्वे नैमिषारण्यवासिनः।
पप्रच्छुः कृपया सूतं लोकानां हितकाम्यया॥1॥
भविष्यन्ति कथं सूत बालकाश्चिरजीविनः।
दारुणेऽस्मिन्महाकाले समाप्ते तु कलौ युगे॥2॥
एक बार नैमिषारण्य के निवासी ऋषियों ने
संसार के कल्याणार्थ सूतजी से पूछा -
हे सूतजी! कराल कलिकाल में लोगों के बालक
किस तरह दीर्घायु होंगे, यह उपाय बताइये।
सूत उवाच-
द्वापरस्य युगस्यान्ते प्रवृत्ते दारुणे कलौ।
योषितां मन्त्राणां चक्रु: शोकोपहतचेतसः॥3॥
जीवत्याश्च कथं मातुरग्रे पुत्रो विनश्यति।
इति निश्चित्य ताः सर्वाः प्रष्टुं जग्मुर्द्विजोत्तमम्॥4॥
गौतमं तु सुखासीनं महात्मानं रहः स्थितम्।
ऊचुस्ताः पुरतःस्थित्वा विनयानम्रकन्धराः॥5॥
सूतजी बोले -
जब द्वापर का अन्त और कलियुग का आरम्भ था,
उसी समय बहुत सी शोकाकुल स्त्रियों ने आपस में परामर्श किया॥
क्या इस कलिकाल में माता की जीवित रहते, पुत्र समाप्त हो जायेंगे?
जब वे आपस में कुछ निर्णय नहीं कर सकीं
तब गौतम ऋषि के पास पूछने के लिए गयीं॥
स्त्रियां गौतम ऋषि के आश्रम पर पहुंचीं तो उस समय
गौतम ऋषि आनन्द मग्न हो कर एकान्त में बैठे थे,
स्त्रियां उनके सामने जाकर मस्तक झुकाकर प्रणाम कीं॥
स्त्रिय ऊचुः-
प्राप्तेऽस्मिन्दारुणे काले कथं जीवन्ति पुत्रकाः।
व्रतेन तपसा वाऽपि निश्चित्य वद् हे प्रभो॥6॥
इति तासां वचः श्रुत्वा कथयामास गौतमः।
श्रृण्वन्तु योषितः सर्वा मया पूर्वं यथा श्रुतम्॥7॥
तदनन्तर स्त्रियों ने पूछा-'हे प्रभो! इस कलियुग में लोगों के पुत्र
किस प्रकार जीवित रहेंगे? इसके लिए कोई व्रत या तप
हो तो कृपा करके बताइये॥
इस तरह उनकी बात सुनकर गौतमजी बोले-
आपसे मैं वही बात कहूँगा, जो मैंने पहले से सुन रखा है॥
गौतम उवाच-
निवृत्ते भारते युद्धे निर्विण्णे पाण्डुनन्दने ।
अथ द्रौणिहतान् पुत्रान् दृष्ट्वा द्रुपदनन्दिनी॥8॥
पुत्रशोकपरीताङ्गी स्वसखीगण सेविता।
जगाम सा महाभागा धौम्यं ब्राह्मणसत्तमम्॥9॥
गौतमजी ने कहा- जब महाभारत-युद्ध का अन्त हो गया
और द्रोणपुत्र अश्वत्थामा के द्वारा अपने बेटों को मरा देखकर
सब पाण्डव बड़े दुःखी हुए तो पुत्र के शोक से व्याकुल होकर
द्रौपदी अपनी सखियों के साथ ब्राह्मण श्रेष्ठ धौम्य ऋषि के पास गईं।
द्रौपद्युवाच-
केनोपायेन विप्रेन्द्र पुत्राः स्युश्चिरजीविनः ।
कथयस्व यथातथ्यं प्रसादाद् द्विजसत्तम ॥10॥
और द्रौपदी ने धौम्य से कहा- 'हे विप्रेन्द्र! कौन-सा उपाय
करने से बच्चे दीर्घायु हो सकते हैं, कृपा करके ठीक-ठीक कहिये॥
धौम्य उवाच-
आसीत् सत्ययुगे देवि सत्यवाक् सत्यसाधनः।
समदर्शी दयाशीलो राजा जीमूतवाहनः॥11॥
स कदाचिन्महाभागो जगाम श्वशुरालयम्।
भार्यया सहितस्तत्र निवासमकरोत् प्रभुः॥12॥
काचिन्निशीथे तद्ग्रामे पुत्रशोकसमाकुला।
रुरोद करुणा दीना निराशा पुत्रदर्शन॥13॥
धौम्य बोले- सत्ययुग में सत्यवचन बोलनेवाला,
सत्याचरण करनेवाला, समदर्शी जीमूतवाहन नामक एक राजा था।
एक बार वह अपनी स्त्री के साथ
अपनी ससुराल गये और वहीं रहने लगे॥
एक दिन आधी रात के समय पुत्र के शोक से व्याकुल
कोई स्त्री विलाप करने लगी। क्योंकि वह अपने बेटे के
दर्शन से निराश हो चुकी थी, उसका पुत्र समाप्त हो चुका था॥
हाहाऽग्रे मम वृद्धाया युवापुत्रो विनश्यति।
तत्क्रन्दनं नृपः श्रुत्वा विदीर्णहृदयोऽभवत्॥14॥
अथ तत्र गतः प्राह कथ्यतां मृत्युकारणम्।
सा चाह गरुडो राजन् ! भुङ्क्ते प्रतिदिनं सुतान्॥15॥
वृद्धाया वचनं श्रुत्वा राजा कारुणिकोऽवदत्।
तिष्ठ मातः सुखं यत्नं करिष्ये पुत्ररक्षणे॥16॥
वह रोती हुई हुई कहती थी - हाय! मुझ बूढ़ी माता के सामने
मेरा बेटा मरा जा रहा है। उसका रुदन सुनकर जीमूतवाहन का तो
मानो हृदय विदीर्ण हो गया। वह तत्काल उस स्त्री के पास गये
और उससे पूछा- तुम्हारा बेटा कैसे मरा है?"
उस बूढ़ी ने कहा - गरुण प्रतिदिन आकर गाँवके लड़कों को खाजाता है।
इस पर दयालु राजा ने कहा- माता अब तुम रोओ मत, आनन्द से बैठो,
मैं तुम्हारे बच्चे को बनाने का यत्न करता हूँ॥
इत्युक्त्वा स ययौ भक्ष्यस्थानं विगतसाध्वसः
आगत्य गरुडो मांसं बुभुजे नृपदेहजम्॥17॥
वामाङ्गे भक्षिते मांसे गरुडेनातितेजसा।
अथासौ दक्षिणं पार्श्वं परिवृत्य ददौ नृपः॥18॥
तद दृष्ट्वा गरुडः प्राह देवयोनिषु को भवान्।
न त्वं वीर मनुष्योऽसि वद जन्म स्वकं कुलम्॥19॥
ऐसा कहकर राजा उस स्थान पर गये, जहाँ गरुड़ आकर
प्रतिदिन मांस खाया करता था।
उसी समय गरुड़ आकर उनके ऊपर टूट पड़ा और मांस खाने लगा॥
जब अतिशय तेजस्वी गरुड़ ने राजा का बांया अंग खा लिया, तो तुरन्तही
राजा ने अपना दाहिना अंग फेरकर गरुड़ के सामने कर दिया।
यह देखकर गरुड़जी ने कहा-'तुम कोई देवता हो?
कौन हो? तुम मनुष्य तो नहीं जान पड़ते।
अच्छा, अपना जन्म और कुल बताओ॥
अथोवाच स्वयं राजा व्यथयाऽऽ कुलितेन्द्रियः।
स्वेच्छया भुङ्क्ष्व पक्षीन्द्र वृथा ते प्रश्न ईदृशः॥20॥
तच्छ्रुत्वा गरुडो वाक्यं निवृत्तश्च स्वयंम्प्रभुः।
पप्रच्छ साग्रहं राज्ञो जन्म चापि कुलं तथा॥21॥
पीड़ा से व्याकुल मनवाले राजा ने कहा- हे पक्षिराज!
इस तरह के प्रश्न करना व्यर्थ है,
आप अपनी इच्छाभर मेरा मांस खालो।
यह सुनकर गरुड़ रुक गये और
बड़े आदर से राजा के जन्म
और कुल की बात पूछने लगे॥
राजोवाच-
जननी मम शैव्याऽस्ति पिता मे शालिवाहनः।
सूर्यवंशोद्भवश्चाहं राजा जीमूतवाहनः॥22॥
राजा ने कहा-'मेरी माता का नाम है शैव्या
और मेरे पिता का नाम शालिवाहन है।
सूर्यवंश में मेरा जन्म हुआ है
और जीमूतवाहन मेरा नाम है ||२२||
दृष्ट्वा दयालुतां राज्ञो गरुडः प्राह सत्त्वरम्।
वरं ब्रूहि महाभाग! यत्ते मनसि रोचते॥23॥
राजा की दयालुता देखकर गरुड़ ने कहा-'हे महाभाग्य
आपके मन में जो अभिलाषा है, वह वर माँग लीजिए॥
राजोवाच-
ददासि चेद् वरं मह्यं पतगेन्द्र वृणोमि ते।
ये चात्र भक्षिताः पूर्वं ते जीवन्तु जनाः खलु॥24॥
पुनर्नैव जनाः भक्ष्याः प्रार्थनेयं मम प्रभो।
चिरं जाता हि जीवन्तु तद्विधेयं त्वया सदा॥25॥
राजा ने कहा- हे पक्षिराजा यदि आप मुझे वरदान दे ही रहे हैं तो
यह वर दीजिए कि, आपने अब तक जिन प्राणियों को खाया है,
वे सारे के सारे जीवित हो जायें।
हे स्वामिन्! अबसे आप यहाँ बालकों को न खाया करें
और कोई ऐसा उपाय करें,
कि जहाँ जो उत्पन्न हों वे लोग बहुत दिनों तक जीवित रहें।
धौम्य उवाच-
सानन्दस्तद् वरं दत्त्वा पक्षीन्द्रो गरुडः स्वयम्।
सुधार्थं नृपकामोऽस विवेश वसुधातले॥26
ततोऽमृतं समानीय सुववर्ष खगेश्वरः।
मृतकानां शरीरेषु चास्थिराषु सर्वतः॥27॥
ततस्ते जीविताः सर्वे भक्षिता ये पुरा नराः।
गरुडस्य प्रसादने राज्ञो वै कृपया ततः॥28॥
राजश्च द्विगुणं तत्र शुशुभे वपुरुत्तमम्।
दृष्ट्वा दयालुतां राज्ञो गभाषे गरुडः पुनः॥29॥
अपरं च वरं दास्ये लोकानां हितकाम्यया।
आश्विने बहुले पक्षे तिथिश्चाद्याष्टमी शुभा॥30॥
धौम्य ने कहा कि,
आनन्द के सहित वर दे कर पक्षियों के राजा गरुड़
स्वयं राजा की इच्छा से अमृत लेने के लिए गये।
और अमृत लाकर पृथ्वी पर मृत पड़े शरीर और हड्डियों पर
चारों ओर से अमृत को बरसाया।
गरुण द्वारा खाए हुए मनुष्य, राजा की कृपा से और
गरुड़ की प्रसन्नता से पुनः जीवित हो गये।
राजा का स्वरूप पहले से ज्यादा सुशोभित हो गया।
राजा की दयालुता देखकर फिर गरुड़ जी बोले-
कि दूसरा वरदान लोक हित की इच्छा से मैं स्वयं देता हूं।
आश्विन मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी बड़ी शुभ है॥
सप्तमी रहिता चाऽद्य प्रजानां जीवितोऽसि त्वम्।
अतोऽयं वासरो वत्स ब्रह्मभावं गमिष्यति॥31॥
दुर्गाया मूर्तिभेदेन ख्याता त्रैलोक्यपूजिता।
अमृताहरेण वत्स स्मृता सा जीवपुत्रिका॥32॥
सत्तिथौ पूजयिष्यन्ति या स्त्रियो जीवपुत्रिकाम्।
त्वं च दर्भमयं कृत्वा श्रद्धाभक्तिसमन्विताः॥33॥
तासां सौभाग्यवृद्धिश्च वंशवृद्धिश्च शाश्वतम् ।
भविष्यति महाभाग नाऽत्र कार्या विचारणा॥34॥
राजा की दयालुता देखकर गरुड़ ने फिर कहा-
'मैं संसार के कल्याणार्थ एक और वरदान दूँगा।
आज आश्विन कृष्ण सप्तमी से रहित शुभ अष्टमी तिथि है।
आज ही तुमने यहाँ की प्रजा को जीवन दान दिया है।
हे राजन्! अबसे यह दिन ब्रह्मभाव युक्त हो गया है।
जो मूर्तिभेद से विविध नामों से विख्यात है, वही त्रैलोक्य से पूजित
पराम्बादुर्गा अमृत प्रदान करने के अर्थ में जीवित्पुत्रिका कहलायी हैं।
सो इस तिथि को जो स्त्रियाँ उस जीवित्पुत्रिका की और कुश की आकृति
बनाकर तुम्हारी पूजा करेंगी तो दिनों-दिन उनका सौभाग्य बढ़ेगा और
वंश की भी वृद्धि होती रहेगी। हे महाभाग ! इस विषय में
कोई सोच-विचार करने की आवश्यकता नहीं है॥
उपोष्य चाऽष्टमीं राजन्। सप्तमी-रहिता शिवा ।
यस्यामुदयते भानुः पारणं नवमीदिने॥35॥
वर्जनीया प्रयत्नेन सप्तमीसहिताष्टमी।
अन्यथा फलहानिः स्यात् सौभाग्यं नश्यति ध्रुवम्॥36॥
हे राजन्! सप्तमी से रहित और उदयातिथि की अष्टमी को व्रत करें,
यानी सप्तमी विद्ध अष्टमी जिस दिन हो उस दिन व्रत नहीं करें।
शुद्ध अष्टमी को व्रत करें, और नवमी में पारण करें।
यदि इस पर ध्यान न दिया जाए तो फल प्राप्त नहीं होता है
और बनी हुई बात बिगड़ने लग जाती है॥
एवं दत्त्वा वरं तस्मै ययौ हरिपुरं खगः।
राजाऽपि भार्यया सार्द्धं स्वपुरं वै जगाम सः॥37॥
इति ते कथितं देवि! व्रतमेतत्सुदुर्लभम्।
यद्व्रतस्य प्रभावेण पुत्राः स्युश्चिर-जीविनः॥38॥
व्रतं कुरुष्व त्वं देवि! पूजयस्व गिरीन्द्रजाम् ।
पूर्वोक्तेन विधानेन ततः फलमवाप्स्यसि॥39॥
मुनेस्तद्वचनं श्रुत्वा पाञ्चाली जातकौतुका।
पुराङ्गना समाहूय चकार व्रतमुत्तमम्॥40॥
जीमूतवाहन को इस तरह वरदान देकर गरुड़ देव
वैकुण्ठ धाम को वापस चले गये। और राजा भी
अपनी पत्नी के साथ अपने । नगर को वापस चले आये।
धौम्य द्रौपदी से कहते हैं-'हे देवि! मैंने यह अतिशय दुर्लभ व्रत
तुमको बताया है। इस व्रत को करने से बच्चे दीर्घायु होते हैं।
हे देवि! तुम भी इसी प्रकार, इसी विधि से यह व्रत करो।
दुर्गाजी के जीवित्पुत्री स्वरूप का पूजन करो
तो तुम्हें भी अभिलषित फल प्राप्त होगा।
मुनिराज धौम्य की बात सुनकर द्रौपदी के हृदय में
एक प्रकार का कौतूहल उत्पन्न हुआ। और पुरवासिनी
स्त्रियों को बुलाकर उनके साथ यह उत्तम व्रत किया॥
गौतम उवाच -
श्रुत्वा व्रतं प्रभावञ्च चिल्ही काञ्चिच्छिवां सखीम्।
कथयामास तत्सर्वं तया च स्वीकृतं व्रतम्॥41॥
प्लक्षशाखां समाश्रित्य चिल्ही व्रतपरा सती।
तत्कोटरे स्थिता तत्र शिवाव्रतपरायणा॥42॥
गौतम ऋषि बोले - इस व्रत के प्रभाव को सुनकर
चिल्ही ने अपनी सखी सियारिन से कहा और
उसने भी इस व्रत को स्वीकार किया।
किसी पीपल की डाली की छाया में रहकर
चिल्ही व्रत करने लगी ने और उसी पीपल के
खोड़हर में सियारिन व्रत करने लगी॥
कुताश्चित्खलु सा चिल्ही कथा श्रुत्वा द्विजोत्तमात्।
स्वसखीं कथयामास प्लक्षकोटरसंस्थिताम्॥43॥
कथामर्द्धां शिवा श्रुत्वा क्षुधापीडित-विग्रहा।
निजगाम ततः शीघ्रं श्मशानं शवपूरितम्॥44॥
तत्र गत्वा च बुभुजे स्वेच्छया चामिषं शिवा।
चिल्ही निरशनं कृत्वा स्थिता प्रातरभूत्तदा॥45॥
कहीं पर उत्तम ब्राह्मण से इस कथा को सुनकर चिल्ही आई
और अपनी सखी सियारिन को जो कि खोड़र में बैठी थी
उसे भी यह कथा सुनाने लगी।
आधी कथा को सुनकर भूख से दुखी शरीर वाली सियारिन
खोड़र से निकल कर जल्दी से श्मशान पर गई और
अपनी इच्छा पूर्वक सियारिन ने मांस खाया और
चिल्ही ने निर्जल व्रत किया। तबतक प्रातः काल हो गया॥
गोष्ठं गत्वा तथा तत्र पीतं च सौरभं पयः।
समाधाय कृतं तत्र पारणं नवमी दिने॥46॥
कियता चैव कालेन पञ्चत्वं च गते उभे ।
कौशलायां धनाढ्यस्य सार्थवाहस्य मन्दिरे॥47॥
संयोगाच्च तयोर्जन्म जातमेकत्र सद्मनि।
ज्येष्ठा तत्र शिवा जाता चिल्ही सा तत्कनीयसी॥48॥
नवमी के दिन, नवमी में पारण करने के लिए गोशाला में जाकर
सुगन्धि युक्त सुन्दर जल चिल्ही ने पिया।
कुछ ही दिनों के बाद दोनों ने अपने शरीर को छोड़ दिया।
बाद में कौशल पुर में किसी धनी के घर,
संयोग से दोनों का एक ही घर में जन्म हुआ।
बड़ी बहिन सियारिन हुई, छोटी बहिन चिल्ही हुई॥
सर्वलक्ष्णसंयुक्ता सा तु जातिस्मराऽभवत्।
अग्रजा काशिनाथेन कनिष्ठा तस्य मन्त्रिणा॥49॥
विवाहिता विधानेन गार्हपत्याग्निसन्निधौ।
पूर्वजन्मविपाकेन राजपत्नी मृगेक्षणा॥50॥
यं यं सुतं प्रसूते सा स स याति यमालयम् ।
जातिस्मरा मन्त्रिपत्नी पुत्रानष्टौ महात्मनः॥51॥
सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त छोटी बहिन चिल्ही,
उसको जाति का स्मरण रहा।
बड़ी बहिन काशीराज ने व्याही,
छोटी बहिन को काशीराज के मंत्री ने।
गार्हपत्य अग्नि के समीप में विधिपूर्वक
दोनों का विवाह किया गया।
पूर्व जन्म के फल से मृगनयनी रानी ने
जो भी सन्तान उत्पन्न किया
वो सब यमराज के घर चले गये॥
सुषुवे वसुमातेव वसूनष्टौ यथा किल।
तान् दृष्ट्वा भगिनी प्राह राजपत्नी नृपागते॥52॥
ईर्ष्ययोवाच भो नाथ! कुरुष्व वचनं मम।
पथा येन गताः पुत्राः मदीयास्तेन योजय॥53॥
भगिन्यश्चापि वै पुत्रान् मां चेज्जीवितुमिच्छसि।
तच्छ्रुत्वा तद्वधं राजा बहुधा विदधत्तदा॥54॥
मृगनयनी रानी ने जिस-किसी भी सन्तान को उत्पन्न किया,
वह मर जाती थी और पूर्वजन्म की बातों को स्मरण करनेवाली
मन्त्री की पत्नी ने अष्ट वसुओं के सदृश तेजस्वी आठ बेटे उत्पन्न किये
और सभी जीवित रह गये। अपनी बहिन के पुत्रों को जीवित देखकर
ईर्ष्यावश राजपत्नी ने अपने स्वामी से कहा कि, यदि तुम मुझे
जीवित रखना चाहते हो तो इस मन्त्री के भी पुत्रों को उसी जगह भेज दो
जहाँ मेरे बेटे गये हैं, इन्हें मार डालो।
अपनी रानी की यह बात सुनकर राजा ने अपने मन्त्री के पुत्रों को
मारने के लिए कई प्रकार के प्रयास किए, उद्योग किये॥
अद्य तान् जीवयामास मृतान् सा जीवपुत्रिका।
एकदा तु वने तेषां शिरच्छेदं विधाय वै॥55॥
वंशनिर्मितपात्रेषु प्रेषयामास तद्गृहम्।
बभूवुस्ते च मूर्द्धानौ नानारत्नादि तत्क्षणात्॥56॥
अज्ञाताश्च गताः सर्वे जीविता तत्सुताः पुनः।
तानालोक्य गता सद्यो विस्मयं नृपवल्लभा॥57॥
पप्रच्छागत्य भगिनी किं व्रतं च कृतं त्वया।
येन जीवन्ति ते पुत्रा मृताश्चैव पुनः पुनः॥58॥
राजा ने अनेक प्रकार से प्रयास किया,
मन्त्री के पुत्रों को समाप्त करने के लिए।
किन्तु मन्त्री पत्नी के जीवित्पुत्रिका के
पुण्य-बल से प्रभाव से वे सभी बच जाते।
एक दिन राजा ने अपने आदमियोंं से उन पुत्रों का
सिर कटवाकर पिटारी में रखवाया और वह पिटारी
उनकी माता (मन्त्री- पत्नी) के पास भिजवा दिया।
किन्तु वे आठों शिरों वाली पिटारी बेशकीमती जवाहरातों से भर गई।
और वे आठों लड़के भले चंगे अपनी माता के पास
जंगल से वापस आ गये।
उनको जीवित देखकर राजपत्नी बहुत ही विस्मित हुई।
अन्त में हार करके राजपत्नी, मन्त्री की पत्नी के पास आयी
और उसने पूछा- हे बहन! तुमने ऐसा कौन-सा ऐसा
पुण्य कार्य किया है, कौनसा व्रत उपवास किया है,
जिससे बार-बार मारे जाने पर भी तुम्हारे बेटे नहीं मरते॥
मन्त्रिभार्योवाच-
पूर्वजन्मनि जाताऽहं चिल्ही त्वञ्च श्रृंगालिका।
कुर्वन् तया व्रतं सम्यक् पालितं येन न त्वया॥59
तेन दोषेण भगिनी ते न जीवन्ति पुत्रकाः।
ममाक्षतव्रतायाश्च जीवन्त्यक्षतविग्रहाः॥60॥
जब राजपत्नी ने आकर के अपनी बहिन से पूछा -
तुमने ऐसा कौन सा व्रत किया है कि
तुम्हारे लड़के बार-बार भी मरकरके जी जाते हैं?
तब मन्त्री की पत्नी बोली- पूर्वजन्म में
मैं चिल्ही रही और तुम सियारिन थी।
जीवित्पुत्रिका के व्रत को करते हुए
तुमने अच्छे से व्रत का पालन नहीं किया।
इस दोष से से बहन तुम्हारे लड़के जीवित नहीं रहते हैं।
और मेरा व्रत नहीं नष्ट हुआ था इसलिए मेरे लड़के जीवित रहते हैं।
इदानीं त्चवं च राजेन्द्र-वल्लभं व्रतमाचर।
तद्व्रतस्य प्रभावेण पुत्रास्ते चिरजीविनः॥61॥
भविष्यन्ति महाभागे सत्यं सत्यं वदामि ते।
सा तस्यास्तद्वचः श्रुत्वा चकार व्रतमुत्तमम्॥62॥
जीवपुत्रं तदारभ्य तस्याः पुत्राः सुशोभनाः।
पृथिव्यां बहुशो जाताः क्षितिपाश्चिरजीविनः॥63॥
मंत्री पत्नी ने सुझाव दिया - हे प्यारी बहिन!
अब तुम और राजा साहब, इस व्रत को करो
इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे पुत्र भी जीवित रहेंगे।
हे भाग्यवती! मैं सत्य वचन कहती हूं।
उसके वचन को सुनकर रानी ने इस व्रत को किया।
व्रत के फल स्वरुप उसे रानी के लड़के बड़े सुंदर
और स्वस्थ हुए इस पृथ्वी पर वे आगे चलकर के
राजा हुए और बहुत समय तक जीने वाले हुए।
सूत उवाच-
दिव्यं व्रतं समाख्यातं सर्वसौभाग्यवर्द्धनम्।
कुर्वन्तु विधिवन्नार्य्यः पुत्राणां जीवितेच्छया॥64॥
॥इति॥
सूतजी ऋषियों से बोले- यह मैंने सुंदर व्रत
संपूर्ण सौभाग्य को बढ़ाने वाला कहा है
संतान के दीर्घ जीवन की इच्छा वाली स्त्रियां इस व्रत को करें।
इति व्रतकथा समाप्त।
अपनी अपनी मान्यताओं के अनुसार अन्य कथाओं का भी वाचन कर लें।
आरती करें-
विसर्जन -
हाथ में पुष्प ले लें और आवाहित जीमुतवाहन,
जीवित्पुत्री तथा चिल्ही के ऊपर पुष्प चढ़ाते हुए प्रार्थना करें -
आवाहनाम् न जानामि ना जानामि विसर्जन्म
न जानामि तवार्चनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर।
मंत्र हीनं क्रिया हीनं भक्ति हीनं सुरेश्वरी
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु में ।
नवमी में पारण करके, प्रसाद वितरण करें।
🙏प्रेम से बोलो - जीवित्पुत्री की जय🙏
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