Wednesday, 23 November 2022

अघोर शिव पंचानन

पंचानन शिव : अघोर
 अघोरशिव वैदिक मंत्र -
अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यः घोरघोरतरेभ्यः 
सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥ 
- यजुर्वेद 
 अर्थात् जो अघोर हैं एवं घोर हैं तथा घोरसे भी घोरतर हैं, जो सर्वसंहारक रुद्ररूप हैं, ऐसे शिव के उन सभी स्वरूपों को हम वंदन करते हैं।
अघोर का ध्यानवर्णन इस प्रकार से - त्रिनेत्र, श्याम वर्ण, भस्म विलेपित शरीर, नाग के आभूषण, कपालमाला परिधान किए हुए। त्रिशूल, डमरू तथा खड्ग एवं कपाल धारण किए हुए, अघोर स्वरूप शिव का उग्र रुप माना जाता है, जिसे रुद्र भी कहतें है। 
शिव का यह अघोर रुप धर्म एवं काल (समय) का स्वामित्व दर्शाता है। 
पंचानन शिव के इस अघोर स्वरूप का वर्ण श्यामल (काला) माना जाता है। 
शरीर में अघोर के स्थान सूक्ष्मरुप से अनाहतचक्र एवं मणिपुर चक्र तथा स्थूलरुप से गले से लेकर नाभी तक का भाग माने जातें है। 
पंचमहाभूतों में अघोर अग्नितत्व का प्रतीनिधीत्व करतें है। 
दिशाओं में दक्षिण दिशा के स्वामी तथा पंचानन स्वरूप में दक्षिण दिशा की ओर इनका मुख होता है। यह मुख विकराल (उग्र रुप में) ऐसा उकेरा जाता है। 
शिवलिंग में तथा शरीर में अघोर का न्यास करते समय 'मध्यमा' के माध्यम से उनका आवाहन करके उस तत्व को प्रवाहित करने का क्रम है। 

Saturday, 19 November 2022

सिद्ध सरस्वती स्तोत्रम्


      ॐ अस्य श्रीसरस्वतीस्तोत्रमन्त्रस्य मार्कण्डेय ऋषिः स्रग्धरा-ऽनुष्टुप् छन्दः, सरस्वती देवता ऐं वीजं, वद वद शक्तिः, स्वाहा कीलकं मम वाक् सिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः।

न्यासः - 
ॐ ह्रीं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । 
ॐ ऐं तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ धीं मध्यमाभ्यां नमः । 
ॐ क्लीं अनामिकाभ्यां नमः। 
ॐ सौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ॐश्रीं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।

हृदयादिन्यासः - 
ॐ ह्रीं हृदयाय नमः । 
ॐ ऐं शिरसे स्वाहा । 
ॐ धीं शिखायै वषट् । 
ॐ क्लीं नेत्रत्रयाय वौषट् । 
ॐ सौं कवचाय हुम् । 
ॐ श्रीं अस्त्राय फट् ।

ध्यानं :-
शुक्लां ब्रह्मविचार-सार-परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।

हस्ते स्फाटिक-मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥१॥

दोर्भिर्युक्तैश्चतुर्भिः स्फटिकमणिमयीमक्ष मालां दधानां
हस्तेनैकेन पद्मं सितमपि च शुकं पुस्तकं चापरेण।

पाशं वीणां मुकुन्द-स्फटिकमणिनिभां भासमाना समाना
सा मे वादे च तथ्यं निवसतु वदने सर्वदा सुप्रसन्ना॥२॥

या कुन्देन्दु-तुषार-हार-धवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणा-वरदण्ड-मण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।

या ब्रह्माऽच्युत-शङ्कर-प्रभृतिभि-र्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥३॥

मन्त्रं:- ॐ ऐं धीं क्लीं सौं श्रीं सरस्वत्यै नमः ॥ 108 बार करें। 

ह्रीं ह्रीं ह्रीं हृद्यैकबीजे शशिरुचिकमले कल्पविस्पष्ट शोभे
भव्ये व्यानुकूले शुभमतिवरदे विश्ववन्द्याङ्घ्रि पद्मे।

पद्मे पद्मोपविष्टे प्रणत जनमनोमोद सम्पादयित्रि
प्रोत्फुल्लज्ञानकूले हरिहरनमिते देवि! संसारसारे॥१॥

ऐं ऐं ऐं जाप्यतुष्टे हिमरुचि-मुकुटे वल्लकीव्यग्रहस्ते
मातर्मातर्नमस्ते दह दह जडतां देहि बुद्धिं प्रशस्ताम्।

विद्ये वेदान्तवेद्ये श्रुतिपरिपठिते मोक्षदे मुक्तिमार्गे
मार्गातीतस्वरूपे भव मम वरदे शारदे शुभ्रहारे॥२॥

धीं धीं धीं धारणाख्ये धृतिमतिनुतिभिर्नामभिः कीर्तनीये
नित्ये नित्ये निमित्ते मुनिजननमिते नूतने वै पुराणे।

पुण्ये पुण्यप्रभावे हरिहरनमिते पूर्णतत्त्व स्वरूपे
मातर्मात्रार्थतत्त्वे! मतिमतिमतिदे!माधव प्रीतिनादे॥३॥

क्लीं क्लीं क्लीं सुस्वरूपे दह दह दुरितं पुस्तकं व्यग्रहस्ते
सन्तुष्टाकारचित्ते स्मितमुखि सुभगे जृम्भिणि स्तम्भनीये।

मोहे मुग्धप्रबोधे मम कुरु कुमतिध्वान्त विध्वंस मीड्ये
गी-गौं-र्वाग्भारतीत्वं कविधृतरसने सिद्धिदे सिद्धिसाध्ये॥४॥

सौं सौं सौं शक्तिबीजे कमल भवमुखाम्भोज मूर्तिस्वरूपे
रूपे रूपप्रकाशे सकलगुणमये निर्गुणं निर्विकल्पे ।

न स्थूले नैव सूक्ष्मेऽप्यविदितविभवे जाप्य विज्ञान तुष्टे
विश्वे विश्वान्तराले सकलगुणमये निष्कले नित्यशुद्धे॥५॥

श्रीं श्रीं श्रीं स्तौमि त्वाऽहं मम खलु रसनां मा कदाचित् त्यज त्वं
मामे बुद्धिर्विरुद्धा भवतु मममनोपातु मां देवि!पापात्।

मा मे दुःखं कदाचित् क्वचिदपि विषये पुस्तके नाकुलत्वं
शास्त्रे वादे कवित्वे प्रसरतु मम धीर्मास्तु कुण्ठा कदाऽपि॥६॥

इत्येतैः श्लोकमुख्येः प्रतिदिनमुषसि स्तौति यो भक्तिनम्रो
वाणी वाचस्पतेरप्यविदितविभवो वाक्य तत्त्वार्थवेत्ता।

स स्यादिष्टार्थलाभी सुतमिव सततं पातु तं सा च देवी
सौभाग्यं तस्य लोके प्रसरतु कविता विघ्नमस्तं प्रयातु॥७॥

निर्विघ्नं तस्य विद्या प्रभवति सततं चाऽशु ग्रन्थप्रबोधः
कीर्तिस्त्रैलोक्यमध्ये निवसति वदने शारदा तस्य साक्षाद्।

दीर्घायुर्लोकपूज्यः सकलगुणनिधिः सन्ततं राजमान्ये 
वाग्देव्याः संप्रसादात् त्रिजगति विजयो जायते तस्य साक्षाद् ॥८॥

ब्रह्मचारी व्रतीमौनी त्रयोदश्यामहर्निशम्।
सारस्वतो जनः पाठाद् भवेदिष्टार्थ लाभवान्॥९॥

पक्षद्वये त्रयोदश्यामेकविंशतिसङ्ख्यया।
अविच्छिन्नं पठेद्यस्तु सुभगो लोकविश्रुतः।
वाञ्छितं फलमाप्नोति षण्मासैर्नाऽत्र संशयः॥१०॥

(ॐ ह्रीं ऐं धीं क्लीं सौं श्रीं वद वद वाग्वादिन्यै स्वाहा।) 
मंत्र बोलकर माला को सिर माथे से 
स्पर्श करें। 

त्वं माले! सर्वदेवानां सर्वकामप्रदा मता। 
तेन सत्येन मे सिद्धिं देहि मातर्नमोऽस्तु ते ॥ 

॥इति सनत्कुमारसंहितायां सिद्ध सरस्वती स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

अब पाठ देवी को अर्पण कर दें। 
देवीसरस्वती स्तोत्र का प्रत्येक त्रयोदशी को 21 पाठ करने से देवी की विशेष कृपा प्राप्त होती है। 

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तृण धरि ओट कहते वैदेही.…

*आज की अमृत कथा*

एक बार अयोध्या के राज भवन में भोजन परोसा जा रहा था।

माता कौशल्या बड़े प्रेम से भोजन खिला रही थी।

माँ सीता ने सभी को खीर परोसना शुरू किया और भोजन शुरू होने ही वाला था की ज़ोर से एक हवा का झोका आया सभी ने अपनी अपनी पत्तलें सम्भाली सीता जी बड़े गौर से सब देख रही थी...

ठीक उसी समय राजा दशरथ जी की खीर पर एक छोटा सा घास का तिनका गिर गया जिसे माँ सीता जी ने देख लिया...

लेकिन अब खीर में हाथ कैसे डालें ये प्रश्न आ गया माँ सीता जी ने दूर से ही उस तिनके को घूर कर देखा वो जल कर राख की एक छोटी सी बिंदु बनकर रह गया सीता जी ने सोचा अच्छा हुआ किसी ने नहीं देखा...

लेकिन राजा दशरथ माँ सीता जी के इस चमत्कार को देख रहे थे फिर भी दशरथ जी चुप रहे और अपने कक्ष पहुँचकर माँ सीता जी को बुलवाया...

फिर उन्होंने सीताजी से कहा कि मैंने आज भोजन के समय आप के चमत्कार को देख लिया था...

आप साक्षात जगत जननी स्वरूपा हैं, लेकिन एक बात आप मेरी जरूर याद रखना...

आपने जिस नजर से आज उस तिनके को देखा था उस नजर से आप अपने शत्रु को भी कभी मत देखना...

इसीलिए माँ सीता जी के सामने जब भी रावण आता था तो वो उस घास के तिनके को उठाकर राजा दशरथ जी की बात याद कर लेती थीं...

तृण धर ओट कहत वैदेही...

सुमिरि अवधपति परम् सनेही...

यही है...उस तिनके का रहस्य...

इसलिये माता सीता जी चाहती तो रावण को उस जगह पर ही राख़ कर सकती थी लेकिन राजा दशरथ जी को दिये वचन एवं भगवान श्रीराम को रावण-वध का श्रेय दिलाने हेतु वो शांत रही...

ऐसी विशालहृदया थीं हमारी जानकी माता..!!

🙏🙏 Jai shree Ram ji🙏🙏🙏

Thursday, 17 November 2022

अब हरि हैं मैं नाहिं

भीतर के "मैं" का मिटना ज़रूरी है।
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सुकरात समुद्र तट पर टहल रहे थे उनकी नजर तट पर खड़े एक रोते बच्चे पर पड़ी । वो उसके पास गए और प्यार से बच्चे के सिर पर हाथ फेरकर पूछा , -''तुम क्यों रो रहे हो?

लड़के ने कहा- 'ये जो मेरे हाथ में प्याला है मैं उसमें इस समुद्र को भरना चाहता हूँ पर यह मेरे प्याले में समाता ही नहीं बच्चे की बात सुनकर सुकरात विशाद में चले गये और स्वयं रोने लगे ।

अब पूछने की बारी बच्चे की थी बच्चा कहने लगा- आप भी मेरी तरह रोने लगे पर आपका प्याला कहाँ है? सुकरात ने जवाब दिया- बालक, तुम छोटे से प्याले में समुद्र भरना चाहते हो,और मैं अपनी छोटी सी बुद्धि में सारे संसार की जानकारी भरना चाहता हूँ ।

आज तुमने सिखा दिया कि समुद्र प्याले में नहीं समा सकता है , मैं व्यर्थ ही बेचैन रहा यह सुनके बच्चे ने प्याले को दूर समुद्र में फेंक दिया और बोला- "सागर अगर तू मेरे प्याले में नहीं समा सकता तो मेरा प्याला तो तुम्हारे में समा सकता है ।

इतना सुनना था कि सुकरात बच्चे के पैरों में गिर पड़े और बोले- बहुत कीमती सूत्र हाथ में लगा है । हे परमात्मा ! आप तो सारा का सारा मुझ में नहीं समा सकते हैं पर मैं तो सारा का सारा आपमें लीन हो सकता हूँ ।

ईश्वर की खोज में भटकते सुकरात को ज्ञान देना था तो भगवान उस बालक में समा गए । सुकरात का सारा अभिमान ध्वस्त कराया जिस सुकरात से मिलने के लिए सम्राट समय लेते थे वह सुकरात एक बच्चे के चरणों में लोट गए थे ।

ईश्वर जब आपको अपनी शरण में लेते हैं तब आपके अंदर का "मैं " सबसे पहले मिटता है । या यूँ कहें जब आपके अंदर का "मैं" मिटता है तभी ईश्वर की कृपा होती है।

सौजन्य:श्री हरिओम सत्संग ग्रुप पाटण

Narayan Adhyatmik Urja

https://youtube.com/shorts/fHOX-ymft2E?feature=share

Friday, 11 November 2022

।।श्रीमद्_शंकराचार्यकृत_अच्युताष्टकं॥

अच्युतं केशवं रामनारायणं

कृष्णदामोदरं वासुदेवं हरिम्। श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं जानकीनायकं रामचंद्रं भजे।1।

अच्युतं केशवं सत्यभामाधवं
माधवं श्रीधरं राधिकाराधितम्।
इंदिरामंदिरं    चेतसा     सुंदरं 
देवकीनंदं नंदजं    संदधे।2।


विष्णवे जिष्णवे शखिंने चक्रिणे
रुकिमणीरागिणे जानकीजनाये।
वल्लवीवल्लभायार्चितायात्मने
कंसविध्वंसिने वंशिने  ते नम:।3।


कृष्ण गोविंद हे राम नारायण
श्रीपते वासुदेवाजित श्रीनिधे।
अच्युतानंत हे माधवाधोक्षज
द्वारिकानायक द्रौपदी रक्षक।4 ।


राक्षसक्षोभित:सीतयाशोभितो-                            दण्ड कारण्य भूपुण्यताकारण:।
लक्ष्मणेनान्वितो वानरै:सेवितो                              अगस्त्य सम्पूजितो राघव:पातुमाम्।5।


धेनुकारिष्टकानिष्टकृद् द्वेषिहा
केशिहा कंसहृद्वंशिकावादक:।
पूतनाकोपक: सूरजाखेलनो
बालगोपालक:पातु मां सर्वदा।6।


विघुदुघोतवत्प्रेस्फुरद्वाससं       
प्रावृसम्भोदवत्प्रोल्लसद्विग्र्हम्।
वन्यया मालया शोभितोर:स्थलं
लोहिताड्.घ्रिद्व्यं वारिजाक्षं भजे।।7।।


कुञ्चितै: कुन्तलैर्भ्राजमानाननं
रत्नमौलिं  लसत्कुण्डलं  गण्डयो:।
हारकेयूरकं ककंणप्रोज्ज्वलं
किकिंणीमञ्जुलं श्यामलं तं भजे॥8।।


अच्युतस्याष्टकं य: पठेदिष्टदं
प्रेमत: प्र्त्यहं पूरूष: सस्पृहम्।
वृत्त:  सुंदरं  कर्तृविश्वम्भरस्तस्य
वश्यो   हरिर्जायते   सत्त्वरम्॥9।।

अच्युत, केशव, राम, कृष्ण, दामोदर, वासुदेव, हरि, श्रीधर, माधव, गोपिकावल्ल्भ तथा जानकीनायक श्री रामचंद्रजी को मैं भजता हूँ।1।


अच्युत, केशव, सत्यभामापति, लक्ष्मीपति श्रीधर, राधिका जी द्वारा आराधित, लक्ष्मी निवास, परम सुंदर, देवकी नंदन, नंदकुमार का मैं चित्त से ध्यान करता हूँ।2।


जो विभु हैं, विजयी हैं, शखं ‌- चक्रधारी हैं, रुक्मिणी जी के परम प्रेमी हैं, जानकी जी जिनकी धर्मपत्नी हैं तथा जो व्रजागंनाओं के प्राणाधार हैं उन परमपूज्य, आत्मस्वरूप, कंसविनाशक, मुरली मनोहर को मैं नमस्कार करता हूँ।3।


हे कृष्ण ! हे गोविंद ! हे राम ! हे नारायण ! हे रामनाथ ! हे वासुदेव ! हे अजेय ! हे शोभानाथ ! हे अच्युत ! हे अनंत ! हे माधव ! हे अधिक्षज (इंद्रियातीत) ! हे द्वारकानाथ ! हे द्रौपदीरक्षक !(मुझ पर कृपा कीजिये)।4।


जो राक्षसों पर अति कुपित हैं, श्री सीता जी से सुशोभित हैं दण्डकारण्य की भूमि की पवित्रता के कारण हैं, श्री लक्ष्मण जी द्वारा अनुगत हैं, वानरों से सेवित हैं और श्री अगस्त्यजी से पूजित हैं; वे रघुवंशी श्री रामचंद्र्जी मेरी रक्षा करें।5।


घेनुक और आरिष्टासुर आदि का अनिष्ट करने वाले, शत्रुअओं का ध्वंस करने वाले, केशी और कंस का वध करने वाले, वंशी को बजाने वाले, पूतना पर कोप करने वाले, यमुना तट विहारी बाल गोपाल मेरी सदा रक्षा करें।6।


विद्युत्प्रकाश के सदृश जिनका पीताम्बर विभाषित हो रहा है, वर्षा कालीन मेघों के समान जिनका अति शोभायान शरीर है, जिनका वक्ष:स्थल वनमाला से विभूषित है और जिनके चरण युगल अरुण वर्ण हैं; उन कमल नयन श्री हरि को मैं भजता हूँ।7।


जिनका मुख घुँघराली अलकों से सुशोभित है, मस्तक पर मणिमय मुकुट शोभा दे रहा है तथा कपोलों पर कुण्डल सुशोभित हो रहे हैं; उज्ज्वल हार, केयूर (बाजूबंद), ककंण और किकिंणीकलाप से सुशोभित उन मञ्जुलमूर्ति श्री श्यामसुंदर को मैं भजता हूँ।8।


जो पुरुष इस अति सुंदर छंद वाले और अभीष्ट फलदायक अच्युताष्टक को प्रेम और श्रद्धा से नित्य पढ़ता है, विश्वम्भर, विश्वकर्ता श्री हरि शीघ्र ही उसके वशीभूत हो जाते हैं।9।

प्रेम से बोलिए भगवान श्री कृष्ण की जय श्री रामचंद्र की जय





Thursday, 10 November 2022

।। तारा प्रत्य़ञ्गिरा कवचम् ।।

ध्यान रखें - भगवती तारा अति उग्र देवी हैं,साधक को चाहिए कि वो ब्रम्हचर्य व संयम धारण कर इस कवच का पाठ किसी योग्य गुरु से आज्ञा लेकर ही करे।

जो साधक इसका नित्य पाठ करते हैं,उनके शत्रु स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं, जीवन में आ रही कष्ट- बाधाओं को नष्ट करने में यह कवच अति सक्षम है।यह कवच नकारात्मक शक्ति तथा तन्त्र बाधा को नष्ट कर देता है।
।। तारा प्रत्य़ञ्गिरा कवचम् ।।

।। ॐ प्रत्य़ञ्गिरायै नमः ।।

ईश्वर उवाच –
ॐ तारायाः स्तम्भिनी देवी मोहिनी क्षोभिनी तथा ।
हस्तिनी भ्रामिणी रौद्री संहारण्यापि तारिणी ।

शक्तयोहष्टौ क्रमादेता शत्रुपक्षे नियोजितः ।
धारिता साधकेन्द्रेण सर्वशत्रु निवारिणी ।

ॐ स्तम्भिनी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् स्तम्भय स्तम्भय ।
ॐ क्षोभिणी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् क्षोभय क्षोभय ।
ॐ मोहिनी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् मोहय मोहय ।
ॐ जृम्भिणी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् जृम्भय जृम्भय ।
ॐ भ्रामिणी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् भ्रामय भ्रामय ।
ॐ रौद्री स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् सन्तापय सन्तापय ।
ॐ संहारिणी स्त्रें स्त्रें मम शत्रुन् संहारय संहारय ।

ॐ तारिणी स्त्रें स्त्रें सर्व्वपद्भ्यः सर्व्वभूतेभ्यः सर्व्वत्र रक्ष रक्ष मां स्वाहा ।।

य इमां धारयेत् विध्यां त्रिसन्ध्यं वापि यः पठेत् ।
स दुःखं दूरतस्त्यक्त्वा ह्यन्याच्छत्रुन् न संशयः ।।

रणे राजकुले दुर्गे महाभये विपत्तिषु ।
विध्या प्रत्य़ञ्गिरा ह्येषा सर्व्वतो रक्षयेन्नरं ।।

अनया विध्या रक्षां कृत्वा यस्तु पठेत् सुधी ।
मन्त्राक्षरमपि ध्यायन् चिन्तयेत् नीलसरस्वतीं ।।

अचिरे नैव तस्यासन् करस्था सर्व्वसिद्ध्यः
ॐ ह्रीं उग्रतारायै नीलसरस्वत्यै नमः ।।

इमं स्तवं धीयानो नित्यं धारयेन्नरः ।
सर्व्वतः सुखमाप्नोति सर्व्वत्रजयमाप्नुयात् ।

नक्कापि भयमाप्नोति सर्व्वत्रसुखमाप्नुयात् ।।

इति रूद्रयामले श्रीमदुग्रताराया प्रत्य़ञ्गिरा कवचम् समाप्तम् ।।

धन्यवाद 🙏
नारायण आध्यात्मिक ऊर्जा 

#नवरात्रि (गुप्त/प्रकट) #विशिष्ट मंत्र प्रयोग #दुर्गा #सप्तशती # पाठ #विधि #सावधानियां

जय जय जय महिषासुर मर्दिनी नवरात्रि के अवसर पर भगवती मां जगदम्बा संसार की अधिष्ठात्री देवी है. जिसके पूजन-मनन से जीवन की समस्त कामनाओं की पूर...