#बटुकभैरव
समस्याओं के निराकरण के लिए तन्त्र ग्रन्थों में 'बटुक भैरव साधना' को स्पष्ट किया गया है। यह भी कहा गया है कि जो बटुक भैरव स्तोत्र का मात्र एक बार पाठ हर रोज कर लेता है उसके जीवन में किसी प्रकार का कोई अभाव या कष्ट व्याप्त नहीं होता ।
1. स्वयं के या परिवार के किसी सदस्य को रोग होना ।
2. घर में मतभेद या पारिवारिक कलह होना ।
3. मुकदमें में परेशानी होना या हार की संभावना अनुभव होना।
4. शत्रुओं से परेशानी या जीवन को खतरा अनुभव करना।
5. दरिद्रता से अत्यधिक ग्रस्त और पीड़ित होना।
6. घर में आकस्मिक बाधाएं, अड़चनें या कठिनाइयां उत्पन्न होना।
7. राज्यभय की आशंका या राज्यभय होना ।
8. किसी भी प्रकार की समस्या का उपस्थित होना।
साधना रहस्य:- यह साधना विधि सदगुरुदेव भगवान ने अत्यंत कृपापूर्वक प्रदान की है जिसके द्वारा मात्र 24 घंटों में किसी भी समस्या का निवारण संभव है।
इस साधना को पुरुष या स्त्री कोई भी सम्पन्न कर सकता है। यदि साधक किसी भी प्रकार की विपत्ति या परेशानी अनुभव करता है तो उसे चाहिए कि वह रात्रि को लाल वस्त्र धारण कर अपने सामने मन्त्र सिद्ध प्राणप्रतिष्ठा युक्त रुद्रयामल तन्त्र से अनुप्राणित 'भैरव यन्त्र को सामने लाल वस्त्र बिछाकर स्थापित कर दें और मंगलवार की रात को ही तेल का दीपक लगाकर इस स्तोत्र के मात्र 51 पाठ सम्पन्न कर लें तो प्रातःकाल होते-होते चमत्कारिक अनुभव होने लगते हैं और वह समस्या मात्र 24 घण्टों में ही हल हो जाती है अथवा बाधा निवारण का मार्ग दिखने लगता है।बेहतर होगा कि पूर्ण सफलता प्राप्ति तक आप इस साधना प्रयोग को करते रहें।
यह एक दिन की साधना है और इसमें कोई लम्बा-चौड़ा विधि-विधान नहीं है। केवल मात्र मंगलवार की रात्रि को सामने भैरव यन्त्र रख, तेल का दीपक लगाकर, लाल वस्त्र धारण कर दक्षिण दिशा की ओर मुंह कर लाल आसन पर बैठ जायं और यन्त्र के सामने गुड़ का भोग लगा दें जो कि 51पाठ सम्पन्न करने के बाद प्रात:काल घर के बाहर दक्षिण दिशा की ओर फेंक दें।
साधना विधि:- सबसे पहले हाथ में जल लेकर अपने मन की कामना उच्चारित करते हुए विनियोग करें। अर्थात् हाथ में जल लेकर अपनी समस्या बताकर जमीन पर जल छोड़ दें। इसके बाद करन्यास और षडंगन्यास कर मूल स्तोत्र के 51 पाठ सम्पन्न करें।
विनियोग:-अस्य श्रीबटुक भैरवनामाष्टशत काऽपदुद्धारण स्तोत्र मन्त्रस्य वृहदारण्यक ऋषि श्री बटुक भैरवो देवता। अनुष्टुप्छन्दः ह्रीं बीजम् बटुकायैति शक्तिः। प्रणव कीलकम अभीष्ट सिद्धयर्थं पाठे जपे विनियोगः ।।
करन्यास -
ह्रां वां अंगुष्ठाभ्यां नमः ।
ह्रीं वीं तर्जनीभ्यां स्वाहा।
ह्रूं वूं मध्यमाभ्यां वषट् ।
ह्रैं वैं अनामिकाभ्यां हम्।
ह्रौं वौं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्
ह्रः वः करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् ।
इति करन्यासः ।
षडंगन्यास -
ह्रां वां हृदयाय नमः।
ह्रीं वीं शिरसे स्वाहा।
ह्रूं वूं शिखायै वषट्।
हैं वैं कवचाय हुम्।
ह्रौं वौं नेत्रत्रयाय वौषट्।
ह्र: वः अस्त्रायफट्
इति षडंगन्यासः ।
नैवेद्य समर्पण -
ऐहये हि देवी पुत्र बटुकनाथ कपिलजटाभारभास्वर त्रिनेत्र ज्वालामुख सर्वविघ्नान्नाशायम 2 सर्वोपचार सहिता बलि ग्रहण्य ग्रहण्य स्वाहा।
~ध्यान~
शातं पद्मासनस्थं शशिमुकुटधरे चेत्रतांगे त्रिनेत्रं ।
शूलं खड्गं च वज्रं परशुमुसलं दक्षिणांगे वहन्तम् ।
नागं पाशं च घंटां नलिनकरयुतं सांकुशं वामभागे
नागालंकारयुक्त स्फटिकमणि निभ नौमितत्वं शिवाख्यम् ।।
मूल पाठ -
ओ३म् भैरवोभूतनाथश्च भूतात्मा भूतभावना ।
क्षेत्रज्ञ: क्षेत्रपालश्च क्षेत्रद क्षत्रियो विराट् ।।1।।
श्मशानवासी मांसाशी खपराशी स्मरान्तकम् ।
रक्तपः पानपः सिद्धः सिद्धिदः सिद्धिसेवितः।।2।।
कंकाल : कालशमन: कला काष्ठातनुः कविः ।
त्रिनेत्री बहुनेत्रश्च तथा पिंगललोचनम् ।।3।।
शूलपाणिः खड्गपाणि कंकाली धूम्रलोचनः ।
अणभीरूभैरवी नाथो भूतपो योगिनी पतिः ।।4।।
धनदा धनहारी च धनवान् प्रतिमानवान्।
नागहारो नागपाशो व्योमकेश: कपालभृत्।।5।।
काल : कपालमाली च कमनीयः कलानिधिः ।
त्रिलोचनो ज्वलन्नेत्रस्त्रिशिखा च त्रिलोकप:।।6।।
त्रिनेत्रतनयो डिम्भ: शान्त: शान्तजन प्रियः ।
बटुको बहुवेषश्च खट्वांगवर धारकः ।।7।।
भूताध्यक्ष : पशुपति भिक्षुकः परिचारक।
धूतो दिगम्बरः शूरो हरिणः पाण्डुलोचन: ।।8।।
प्रशान्त: शान्तिद: सिद्ध: शंकरः प्रियबान्धवः ।
अष्टमूर्तिर्निधीशश्च ज्ञानचक्षुस्तपोमयः ।।9।।
अष्टाधारः षडांधार: सर्प युक्त्तः शिखी सख: । भूधरो भूधराधीशो भूपतिर्भूधरात्मजः ।।10।।
कंकालधारी मुण्डो च नागयज्ञोपवीतिक:। जृम्भणो मोहनः स्तम्भो मारणः क्षोभणस्तथा ।।11।।
शुद्धो नीलाजनं दैत्यो दैत्यहा मुण्ड भूषितः ।
बलिभुग्बलिभंग: वैद्यवीर नाथी पराक्रमः ।।12।।
सर्वापत्तारणो दुर्गा दुष्ट भूतनिवेदितः ।
कामी कलानिधिः कान्तः कामिनीवश कृद्वशी।।13।।
सर्व सिद्धिप्रदो वैद्यः प्रभुर्विष्णुरितीव हि।
अष्टोत्तरशतं नाम्नां भैरवस्य महात्मनः ।।14।।
मयाते कथितं देवी रहस्य सार्वकामिकम्।
य इदं पठत स्तोत्रं नामाष्टशतमुत्तमम् ।।15।।
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