विनियोगः-
ॐ अस्य श्रीशत्रु विध्वंसिनी स्तोत्र मन्त्रस्य ज्वालाव्याप्तः ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीशत्रु-विध्वंसिनी देवता, श्रीशत्रु-जयार्थे (उच्चाटनार्थे नाशार्थे वा) जपे विनियोगः ।।
ऋष्यादि-न्यासः -
शिरसि ज्वाला-व्याप्त-ऋषये नमः।
मुखे अनुष्टुप छन्दसे नमः,
हृदि श्रीशत्रु-विध्वंसिनी देवतायै नमः,
अञ्जलौ श्रीशत्रु-जयार्थे (उच्चाटनार्थे नाशार्थे वा) जपे विनियोगाय नमः।।
कर - न्यासः -
ॐ श्रीशत्रु-विध्वंसिनी अंगुष्ठाभ्यां नमः।
ॐ त्रिशिरा तर्जनीभ्यां नमः।
ॐ अग्नि-ज्वाला मध्यमाभ्यां नमः।
ॐ घोर-दंष्ट्री अनामिकाभ्यां नमः।
ॐ दिगम्बरी कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
ॐ रक्त-पाणि करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादि - न्यासः -
ॐ रौद्री हृदयाय नमः।
ॐ रक्त-लोचनी शिरसे स्वाहा।
ॐ रौद्र-मुखी शिखायै वषट्।
ॐ त्रि-शूलिनो कवचाय हुम्।
ॐ मुक्त-केशी नेत्र-त्रयाय वौषट्।
ॐ महोदरी अस्त्राय फट्।
फट् से ताल-त्रय दें (तीन बार ताली बजाएँ)
और “ॐ रौद्र-मुख्यै नमः” से दशों दिशाओं में चुटकी बजाकर दिग्-बन्धन करें।
ध्यानम् -
ध्यान निम्न प्रकार से है, इन बारह नामों का उच्चारण करते हुए देवी के स्वरूप का मानसिक रूप से मनन -चिंतन करते रहें -
ॐ शत्रुविध्वंसिनी रौद्री, त्रिशिरा रक्तलोचनी
अग्निज्वाला रौद्रमुखी, घोरदंष्ट्री त्रिशूलिनी
दिगम्बरी, मुक्तकेशी, रक्त-पाणी महोदरी ।
स्तोत्रम् -
“ॐ शत्रुविध्वंसिनी रौद्री, त्रिशिरा रक्तलोचनी।
अग्निज्वाला रौद्रमुखी, घोरदंष्ट्री त्रिशूलिनी।।१।।
दिगम्बरी, मुक्तकेशी, रक्त-पाणी महोदरी।”
एतैर्नाममभिर्घोरैश्च,शीघ्रमुच्चाटयेद्वशी॥२।।
॥ फलश्रुति॥
इदं स्तोत्रं पठेनित्यं, विजयः शत्रु नाशनम्।
सहस्त्र-त्रितयं कुर्यात्, कार्य-सिद्धिर्न संशयः।।३।।
विशेषः- यह स्तोत्र अत्यन्त उग्र है। इसके विषय में निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान अवश्य देना चाहिए-
👉 प्रथम और अन्तिम आवृति में नामों के साथ फल-श्रुति मात्र पढ़ें। पाठ नहीं होगा।
👉 घर में पाठ कदापि न किया जाए, केवल शिवालय, नदी-तट, एकान्त, निर्जन-वन, श्मशान अथवा किसी मन्दिर के एकान्त में ही करें।
👉 पुरश्चरण की आवश्यकता नहीं है। सीधे ‘प्रयोग’ करें। प्रत्येक ‘प्रयोग’ में तीन हजार आवृत्तियाँ करनी होगी।
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