Saturday, 27 January 2024

#शनि #चालीसा

 चालीसा (Shani Chalisa)

॥ दोहा ॥
जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल करण कृपाल ।
दीनन के दुख दूर करि, कीजै नाथ निहाल ॥

जय जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महाराज ।
   करहु कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज ॥

           ॥ चौपाई ॥

जयति जयति शनिदेव दयाला ।
करत सदा भक्तन प्रतिपाला ॥

चारि भुजा, तनु श्याम विराजै ।
माथे रतन मुकुट छबि छाजै ॥

परम विशाल मनोहर भाला ।
टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला ॥

कुण्डल श्रवण चमाचम चमके ।
हिय माल मुक्तन मणि दमके ॥ ४॥

कर में गदा त्रिशूल कुठारा ।
पल बिच करैं अरिहिं संहारा ॥

पिंगल, कृष्णों, छाया नन्दन ।
यम, कोणस्थ, रौद्र, दुखभंजन ॥

सौरी, मन्द, शनी, दश नामा ।
भानु पुत्र पूजहिं सब कामा ॥

जा पर प्रभु प्रसन्न ह्वैं जाहीं ।
रंकहुँ राव करैं क्षण माहीं ॥ ८॥

पर्वतहू तृण होई निहारत ।
तृणहू को पर्वत करि डारत ॥

राज मिलत बन रामहिं दीन्हयो ।
कैकेइहुँ की मति हरि लीन्हयो ॥

बनहूँ में मृग कपट दिखाई ।
मातु जानकी गई चुराई ॥

लखनहिं शक्ति विकल करिडारा ।
मचिगा दल में हाहाकारा ॥ १२॥

रावण की गतिमति बौराई ।
रामचन्द्र सों बैर बढ़ाई ॥

दियो कीट करि कंचन लंका ।
बजि बजरंग बीर की डंका ॥

नृप विक्रम पर तुहि पगु धारा ।
चित्र मयूर निगलि गै हारा ॥

हार नौलखा लाग्यो चोरी ।
हाथ पैर डरवाय तोरी ॥ १६॥

भारी दशा निकृष्ट दिखायो ।
तेलिहिं घर कोल्हू चलवायो ॥

विनय राग दीपक महं कीन्हयों ।
तब प्रसन्न प्रभु ह्वै सुख दीन्हयों ॥

हरिश्चन्द्र नृप नारि बिकानी ।
आपहुं भरे डोम घर पानी ॥

तैसे नल पर दशा सिरानी ।
भूंजीमीन कूद गई पानी ॥ २०॥

श्री शंकरहिं गह्यो जब जाई ।
पारवती को सती कराई ॥

तनिक विलोकत ही करि रीसा ।
नभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा ॥

पाण्डव पर भै दशा तुम्हारी ।
बची द्रौपदी होति उघारी ॥

कौरव के भी गति मति मारयो ।
युद्ध महाभारत करि डारयो ॥ २४॥

रवि कहँ मुख महँ धरि तत्काला ।
लेकर कूदि परयो पाताला ॥

शेष देवलखि विनती लाई ।
रवि को मुख ते दियो छुड़ाई ॥

वाहन प्रभु के सात सजाना ।
जग दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना ॥

जम्बुक सिंह आदि नख धारी ।
सो फल ज्योतिष कहत पुकारी ॥ २८॥

गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं ।
हय ते सुख सम्पति उपजावैं ॥

गर्दभ हानि करै बहु काजा ।
सिंह सिद्धकर राज समाजा ॥

जम्बुक बुद्धि नष्ट कर डारै ।
मृग दे कष्ट प्राण संहारै ॥

जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी ।
चोरी आदि होय डर भारी ॥ ३२॥

तैसहि चारि चरण यह नामा ।
स्वर्ण लौह चाँदी अरु तामा ॥

लौह चरण पर जब प्रभु आवैं ।
धन जन सम्पत्ति नष्ट करावैं ॥

समता ताम्र रजत शुभकारी ।
स्वर्ण सर्व सर्व सुख मंगल भारी ॥

जो यह शनि चरित्र नित गावै ।
कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै ॥ ३६॥

अद्भुत नाथ दिखावैं लीला ।
करैं शत्रु के नशि बलि ढीला ॥

जो पण्डित सुयोग्य बुलवाई ।
विधिवत शनि ग्रह शांति कराई ॥

पीपल जल शनि दिवस चढ़ावत ।
दीप दान दै बहु सुख पावत ॥

कहत राम सुन्दर प्रभु दासा ।
शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा ॥ ४०॥

॥ दोहा ॥
पाठ शनिश्चर देव को, की हों भक्त तैयार ।
करत पाठ चालीस दिन, हो भवसागर पार ॥
🙏🙏🙏🙏🙏

https://youtu.be/fetEfJZFoKQ

Tuesday, 23 January 2024

#श्रीराघवेन्द्राष्टकम्

#श्रीराघवेन्द्राष्टकम्!!
अच्युतं राघवं जानकी वल्लभं
कोशलाधीश्वरं रामचन्द्रं हरिम् ।
नित्यधामाधिपं सद्गुणाम्भोनिधिं
सर्वलोकेश्वरं राघवेन्द्रं भजे ॥ १॥

सर्वसङ्कारकं सर्वसन्धारकं
सर्वसंहारकं सर्वसन्तारकम् ।
सर्वपं सर्वदं सर्वपूज्यं प्रभुं
सर्वलोकेश्वरं राघवेन्द्रं भजे ॥ २॥

देहिनं शेषिणं गामिनं रामिणं
ह्यस्य सर्वप्रपञ्चस्य चान्तःस्थितम् ।
विश्वपारस्थितं विश्वरूपं तथा
सर्वलोकेश्वरं राघवेन्द्रं भजे ॥ ३॥

सिन्धुना संस्तुतं सिन्धुसेतोः करं
रावणघ्नं परं रक्षसामन्तकम् ।
पह्नजादिस्तुतं सीतया चान्वितं
सर्वलोकेश्वरं राघवेन्द्रं भजे ॥ ४॥

योगिसिद्धाग्र-गण्यर्षि-सम्पूजितं
पह्नजोन्पादकं वेददं वेदपम् ।
वेदवेद्यं च सर्वज्ञहेतुं श्रुतेः
सर्वलोकेश्वरं राघवेन्द्रं भजे ॥ ५॥

दिव्यदेहं तथा दिव्यभूषान्वितं
नित्यमुक्तैकसेव्यं परेशं किलम् ।
कारणं कार्यरूपं विशिष्टं विभुं
सर्वलोकेश्वरं राघवेन्द्रं भजे ॥ ६॥

कुझ्तिऐः कुन्तलैःशोभमानं परं
दिव्यभव्जेक्षणं पूर्णचन्द्राननम् ।
नीलमेघद्युतिं दिव्यपीताम्बरं
सर्वलोकेश्वरं राघवेन्द्रं भजे ॥ ७॥

चापबाणान्वितं भुक्तिउक्तिप्रदं
धर्मसंरक्षकं पापविध्वंसकम् ।
दीनबन्धुं परेशं दयाम्भोनिधिं
सर्वलोकेश्वरं राघवेन्द्रं भजे ॥ ८॥

॥ इति श्रीराघवेन्द्राष्टकम् ॥
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

Sunday, 21 January 2024

#श्रीराम #आपदुद्धारक #स्तोत्रम्

#श्रीरामआपदुद्धारकस्तोत्रम्!! 
    आपदामपहर्तारं दातारं सर्व सम्पदां। 
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्।

नमः कोदण्डहस्ताय सन्धीकृतशराय च
दण्डिताखिलदैत्याय रामायापन्निवारिणे ॥ १॥

आपन्नजनरक्षैकदीक्षायामिततेजसे ।
नमोऽस्तु विष्णवे तुभ्यं रामायापन्निवारिणे ॥ २॥

पदाम्भोजरजस्पर्शपवित्रमुनियोषिते ।
नमोऽस्तु सीतापतये रामायापन्निवारिणे ॥ ३॥

दानवेन्द्रमहामत्तगजपञ्चास्यरूपिणे ।
नमोऽस्तु रघुनाथाय रामायापन्निवारिणे ॥ ४॥

महिजाकुचसंलग्नकुङ्कुमारुणवक्षसे ।
नमः कल्याणरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ ५॥

पद्मसम्भवभूतेशमुनिसंस्तुतकीर्तये ।
नमो मार्ताण्डवंश्याय रामायापन्निवारिणे ॥ ६॥

हरत्यार्तिं च लोकानां यो वा मधुनिषूदनः ।
नमोऽस्तु हरये तुभ्यं रामायापन्निवारिणे ॥ ७॥

तापकारणसंसारगजसिंहस्वरूपिणे ।
नमो वेदान्तवेद्याय रामायापन्निवारिणे ॥ ८॥

रङ्गत्तरङ्गजलधिगर्वहृच्छरधारिणे ।
नमः प्रतापरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ ९॥

दारोपहितचन्द्रावतंसध्यातस्वमूर्तये ।
नमः सत्यस्वरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ १०॥

तारानायकसङ्काशवदनाय महौजसे ।
नमोऽस्तु ताटकाहन्त्रे रामायापन्निवारिणे ॥ ११॥

रम्यसानुलसच्चित्रकूटाश्रमविहारिणे ।
नमस्सौमित्रिसेव्याय रामायापन्निवारिणे ॥ १२॥

सर्वदेवाहितासक्त दशाननविनाशिने ।
नमोऽस्तु दुःखध्वंसाय रामायापन्निवारिणे ॥ १३॥

रत्नसानुनिवासैक वन्द्यपादाम्बुजाय च ।
नमस्त्रैलोक्यनाथाय रामायापन्निवारिणे ॥ १४॥

संसारबन्ध मोक्षैकहेतुदामप्रकाशिने ।
नमः कलुषसंहर्त्रे रामायापन्निवारिणे ॥ १५॥

पवनाशुगसङ्क्षिप्तमारीचादिसुरारये ।
नमो मखपरित्रात्रे रामायापन्निवारिणे ॥ १६॥

दाम्भिकेतरभक्तौघमहानन्दप्रदायिने ।
नमः कमलनेत्राय रामायापन्निवारिणे ॥ १७॥

लोकत्रयोद्वेगकरकुम्भकर्णशिरश्छिदे ।
नमो नीरददेहाय रामायापन्निवारिणे ॥ १८॥

काकासुरैकनयनहरल्लीलास्त्रधारिणे ।
नमो भक्तैकवेद्याय रामायापन्निवारिणे ॥ १९॥

भिक्षुरूप समाक्रान्तबलिसर्वैकसम्पदे ।
नमो वामनरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ २०॥

राजीवनेत्रसुस्पन्दरुचिराङ्गसुरोचिषे ।
नमः कैवल्यनिधये रामायापन्निवारिणे ॥ २१॥

मन्दमारुतसंवीतमन्दारद्रुमवासिने ।
नमः पल्लवपादाय रामायापन्निवारिणे ॥ २२॥

श्रीकण्ठचापदलनधुरीणबलबाहवे ।
नमः सीतानुषक्ताय रामायापन्निवारिणे ॥ २३॥

राजराजसुहृद्योषार्चितमङ्गलमूर्तये ।
नम इक्ष्वाकुवंश्याय रामायापन्निवारिणे ॥ २४॥

मञ्जुलादर्शविप्रेक्षणोत्सुकैकविलासिने ।
नमः पालितभक्त्ताय रामायापन्निवारिणे ॥ २५॥

भूरिभूधरकोदण्डमूर्तिध्येयस्वरूपिणे ।
नमोऽस्तु तेजोनिधये रामायापन्निवारिणे ॥ २६॥

योगीन्द्रहृत्सरोजातमधुपाय महात्मने ।
नमो राजाधिराजाय रामायापन्निवारिणे ॥ २७॥

भूवराहस्वरूपाय नमो भूरिप्रदायिने ।
नमो हिरण्यगर्भाय रामायापन्निवारिणे ॥ २८॥

योषाञ्जलिविनिर्मुक्त लाजाञ्चितवपुष्मते ।
नमस्सौन्दर्यनिधये रामायापन्निवारिणे ॥ २९॥

नखकोटिविनिर्भिन्नदैत्याधिपतिवक्षसे ।
नमो नृसिंहरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ ३०॥

मायामानुषदेहाय वेदोद्धरणहेतवे ।
नमोऽस्तु मत्स्यरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ ३१॥

मितिशून्य महादिव्यमहिम्ने मानितात्मने ।
नमो ब्रह्मस्वरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ ३२॥

अहङ्कारेतरजनस्वान्तसौधविहारिणे ।
नमोऽस्तु चित्स्वरूपाय रामायापन्निवारिणे ॥ ३३॥

सीतालक्ष्मणसंशोभिपार्श्वाय परमात्मने ।
नमः पट्टाभिषिक्ताय रामायापन्निवारिणे ॥ ३४॥

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥ ३५॥

       फलश्रुति
इमं स्तवं भगवतः पठेद्यः प्रीतमानसः ।
प्रभाते वा प्रदोषे वा रामस्य परमात्मनः ॥ १॥

स तु तीर्त्वा भवाम्भोधिमापदस्सकला अपि ।
रामसायुज्यमाप्नोति देवदेवप्रसादतः ॥ २॥

कारागृहादिबाधासु सम्प्राप्ते बहुसङ्कटे ।
अपन्निवारकस्तोत्रं पठेद्यस्तु यथाविधि ॥ ३॥

संयोज्यानुष्टुभं मन्त्रमनुश्लोकं स्मरन् विभुम् ।
सप्ताहात्सर्वबाधाभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ४॥

द्वात्रिंशद्वारजपतः प्रत्यहं तु दृढव्रतः ।
वैशाखे भानुमालोक्य प्रत्यहं शतसङ्ख्यया ॥ ५॥

धनवान् धनदप्रख्यस्स भवेन्नात्र संशयः ।
बहुनात्र किमुक्तेन यं यं कामयते नरः ॥ ६॥

तं तं काममवाप्नोति स्तोत्रेणानेन मानवः।
यन्त्रपूजाविधानेन जपहोमादितर्पणैः ॥ ७॥

यस्तु कुर्वीत सहसा सर्वान् कामानवाप्नुयात् ।
इह लोके सुखी भूत्वा परे मुक्तो भविष्यति ॥ ८॥
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

Wednesday, 17 January 2024

#नमामि #भक्त #वत्सलम् 🙏 #जय #श्रीराम

अत्रि मिलन एवं स्तुति
सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ॥2॥
भावार्थ : (इसलिए) सब मुनियों से विदा लेकर सीताजी सहित दोनों भाई चले! जब प्रभु अत्रिजी के आश्रम में गए, तो उनका आगमन सुनते ही महामुनि हर्षित हो गए॥2॥

पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए॥
करत दंडवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए॥3॥
भावार्थ : शरीर पुलकित हो गया, अत्रिजी उठकर दौड़े। उन्हें दौड़े आते देखकर श्री रामजी और भी शीघ्रता से चले आए। दण्डवत करते हुए ही श्री रामजी को (उठाकर) मुनि ने हृदय से लगा लिया और प्रेमाश्रुओं के जल से दोनों जनों को (दोनों भाइयों को) नहला दिया॥3॥

देखि राम छबि नयन जुड़ाने। सादर निज आश्रम तब आने॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए॥4॥
भावार्थ : श्री रामजी की छवि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गए। तब वे उनको आदरपूर्वक अपने आश्रम में ले आए। पूजन करके सुंदर वचन कहकर मुनि ने मूल और फल दिए, जो प्रभु के मन को बहुत रुचे॥4॥
सोरठा :
प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥3॥
भावार्थ : प्रभु आसन पर विराजमान हैं। नेत्र भरकर उनकी शोभा देखकर परम प्रवीण मुनि श्रेष्ठ हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे॥3॥

नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥
भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥
भावार्थ : हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मैं भजता हूँ॥1॥

निकाम श्याम सुंदरं। भवांबुनाथ मंदरं॥
प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥
भावार्थ : आप नितान्त सुंदर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को मथने के लिए मंदराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषों से छुड़ाने वाले हैं॥2॥

प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥
निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥3॥
भावार्थ : हे प्रभो! आपकी लंबी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धि के परे अथवा असीम) है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करने वाले तीनों लोकों के स्वामी,॥3॥

दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं॥
मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं॥4॥
भावार्थ : सूर्यवंश के भूषण, महादेवजी के धनुष को तोड़ने वाले, मुनिराजों और संतों को आनंद देने वाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करने वाले हैं॥4॥

मनोज वैरि वंदितं। अजादि देव सेवितं॥
विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥5॥
भावार्थ : आप कामदेव के शत्रु महादेवजी के द्वारा वंदित, ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं॥5॥

नमामि इंदिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं॥
भजे सशक्ति सानुजं। शची पति प्रियानुजं॥6॥
भावार्थ : हे लक्ष्मीपते! हे सुखों की खान और सत्पुरुषों की एकमात्र गति! मैं आपको नमस्कार करता हूँ! हे शचीपति (इन्द्र) के प्रिय छोटे भाई (वामनजी)! स्वरूपा-शक्ति श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित आपको मैं भजता हूँ॥6॥

त्वदंघ्रि मूल ये नराः। भजंति हीन मत्सराः॥
पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले॥7॥
भावार्थ : जो मनुष्य मत्सर (डाह) रहित होकर आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं, वे तर्क-वितर्क (अनेक प्रकार के संदेह) रूपी तरंगों से पूर्ण संसार रूपी समुद्र में नहीं गिरते (आवागमन के चक्कर में नहीं पड़ते)॥7॥

विविक्त वासिनः सदा। भजंति मुक्तये मुदा॥
निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांतिते गतिं स्वकं॥8॥
भावार्थ : जो एकान्तवासी पुरुष मुक्ति के लिए, इन्द्रियादि का निग्रह करके उन्हें विषयों से हटाकर प्रसन्नतापूर्वक आपको भजते हैं, वे स्वकीय गति को अपने स्वरूप को प्राप्त होते हैं॥8॥

तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥9॥
भावार्थ : उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥9॥

भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं॥
स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं॥10॥
भावार्थ : (तथा) जो भावप्रिय, कुयोगियों (विषयी पुरुषों) के लिए अत्यन्त दुर्लभ, अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्ष (अर्थात्‌ उनकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले), सम (पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं, मैं निरंतर भजता हूँ॥10॥

अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं॥
प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे॥11॥
भावार्थ : हे अनुपम सुंदर! हे पृथ्वीपति! हे जानकीनाथ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मुझ पर प्रसन्न होइए, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मुझे अपने चरण कमलों की भक्ति दीजिए॥11॥

पठंति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं॥
व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुताः॥12॥
भावार्थ : जो मनुष्य इस स्तुति को आदरपूर्वक पढ़ते हैं, वे आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परम पद को प्राप्त होते हैं, इसमें संदेह नहीं॥12॥

दोहा :
बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि।
चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि॥4॥ : मुनि ने (इस प्रकार) विनती करके और फिर सिर नवाकर, हाथ जोड़कर कहा- हे नाथ! मेरी बुद्धि आपके चरण कमलों को कभी न छोड़े॥4॥
https://youtu.be/YLcrRGShtp4

#नगरी हो #अयोध्या सी, #रघुकुल सा #घराना हो

नगरी हो अयोध्या सी,रघुकुल सा घराना हो
चरन हो राघव के,जहा मेरा ठिकाना हो


लक्ष्मण सा भाई हो,कौशल्या माई हो
स्वामी तुम जैसा मेरा रघुराई हो
नगरी हो अयोध्या सी,रघुकुल सा घराना हो.....

हो त्याग भरत जैसा,सीता सी नारी हो
लव कुश के जैसी सन्तान हमारी हो
नगरी हो अयोध्या सी,रघुकुल सा घराना हो.....

श्रद्धा हो श्रवण जैसी,शबरी सी भक्ति हो
हनुमान के जैसे निष्ठा और शक्ती हो
नगरी हो अयोध्या सी,रघुकुल सा घराना हो.....


नगरी हो अयोध्या सी,रघुकुल सा घराना हो
चरन हो राघव के,जहा मेरा ठिकाना हो

https://youtu.be/r0SE5sty-a4

Tuesday, 16 January 2024

जब #महादेव ने की #श्रीराम की #प्रार्थना

जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥1॥

भावार्थ
हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकांत)! हे जन्म-मरण के संताप का नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए। हे अवधपति! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए॥1॥

छन्द
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा॥
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे॥2॥

भावार्थ
हे दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण का विनाश करके पृथ्वी के सब महान्‌ रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्री राम जी! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपके बाण रूपी अग्नि के प्रचण्ड तेज से भस्म हो गए॥2॥

छन्द
महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी॥3॥

भावार्थ
आप पृथ्वी मंडल के अत्यंत सुंदर आभूषण हैं, आप श्रेष्ठ बाण, धनुष और तरकस धारण किए हुए हैं। महान् मद, मोह और ममता रूपी रात्रि के अंधकार समूह के नाश करने के लिए आप सूर्य के तेजोमय किरण समूह हैं॥3॥


छन्द
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे॥4॥
भावार्थ
कामदेव रूपी भील ने मनुष्य रूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे नाथ! हे (पाप-ताप का हरण करने वाले) हरे ! उसे मारकर विषय रूपी वन में भूल पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवों की रक्षा कीजिए॥4॥

छन्द
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए॥
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते॥5॥

भावार्थ
लोग बहुत से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलों में प्रेम नहीं करते, वे अथाह भवसागर में पड़े हैं॥5॥

छन्द
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं॥
अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें॥6॥

भावार्थ
जिन्हें आपके चरणकमलों में प्रीति नहीं है वे नित्य ही अत्यंत दीन, मलिन (उदास) और दुःखी रहते हैं और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत और भगवान सदा प्रिय लगने लगते हैं॥6॥

छन्द
नहिं राग न लोभ न मान सदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥7॥

भावार्थ
उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ, न मान है, न मद। उनको संपत्ति सुख और विपत्ति (दुःख) समान है। इसी से मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिए त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं॥7॥

छन्द
करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ॥
सम मानि निरादर आदरही। सब संतु सुखी बिचरंति मही॥8॥

भावार्थ
वे प्रेमपूर्वक नियम लेकर निरंतर शुद्ध हृदय से आपके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं और निरादर और आदर को समान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वी पर विचरते हैं॥8॥


छन्द
मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे॥
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी॥9॥

भावार्थ
हे मुनियों के मन रूपी कमल के भ्रमर! हे महान् रणधीर एवं अजेय 
श्री रघुवीर! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ) 
हे हरि! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ। 
आप जन्म-मरण रूपी रोग की महान् औषध और अभिमान के शत्रु हैं॥9॥


छन्द
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं॥10॥

भावार्थ
आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान हैं। 
आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरंतर प्रणाम करता हूँ। 
हे रघुनन्दन! (आप जन्म-मरण, सुख-दुःख, राग-द्वेषादि) 
द्वंद्व समूहों का नाश कीजिए। हे पृथ्वी का पालन करने वाले राजन। 
इस दीन जन की ओर भी दृष्टि डालिए॥10॥

दोहा
बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥14 क॥

भावार्थ
मैं आपसे बार-बार यही वरदान माँगता हूँ कि 
मुझे आपके चरणकमलों की अचल भक्ति और 
आपके भक्तों का सत्संग सदा प्राप्त हो। 
हे लक्ष्मीपते! हर्षित होकर मुझे यही दीजिए॥

चौपाई
बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास॥14 ख॥

भावार्थ
श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करके उमापति महादेव जी 
हर्षित होकर कैलास को चले गए। 
तब प्रभु ने वानरों को सब प्रकार से 
सुख देने वाले डेरे दिलवाए॥14 (ख)॥

चौपाई
सुनु खगपति यह कथा पावनी। त्रिबिध ताप भव भय दावनी॥
महाराज कर सुभ अभिषेका। सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका॥1॥
भावार्थ
हे गरुड़जी ! सुनिए यह कथा (सबको) पवित्र करने वाली है,
 (दैहिक, दैविक, भौतिक) तीनों प्रकार के तापों का और 
जन्म-मृत्यु के भय का नाश करने वाली है। 
महाराज श्री रामचंद्र जी के कल्याणमय राज्याभिषेक का 
चरित्र (निष्कामभाव से) सुनकर मनुष्य 
वैराग्य और ज्ञान प्राप्त करते हैं॥1॥

चौपाई
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं। सुख संपति नाना बिधि पावहिं॥
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं॥2॥

भावार्थ
और जो मनुष्य सकामभाव से सुनते और जो गाते हैं, 
वे अनेकों प्रकार के सुख और संपत्ति पाते हैं। 
वे जगत् में देव दुर्लभ सुखों को भोगकर अंतकाल में 
श्री रघुनाथजी के परमधाम को जाते हैं॥2॥


चौपाई
सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई। लहहिं भगति गति संपति नई॥
खगपति राम कथा मैं बरनी। स्वमति बिलास त्रास दु:ख हरनी॥3॥

भावार्थ
इसे जो जीवन्मुक्त, विरक्त और विषयी सुनते हैं, वे (क्रमशः) 
भक्ति, मुक्ति और नवीन संपत्ति (नित्य नए भोग) पाते हैं। 
हे पक्षीराज गरुड़जी! मैंने अपनी बुद्धि की पहुँच के अनुसार 
रामकथा वर्णन की है, जो (जन्म-मरण) भय और दुःख हरने वाली है॥3॥

https://youtu.be/9mYFJFrHrUc


Monday, 15 January 2024

राम_नाम_रामायण

#राम_#नाम_#रामायण

      
 रामायण का पाठ करने से सभी पाप-ताप दूर हो जाते हैं और भगवान श्री राम की निर्मल भक्ति प्राप्त होती है। संक्षिप्त “नाम रामायण” का पाठ भी वही फल देता है जो रामायण पढ़ने का फल है।

 
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~बालकाण्डः~
शुद्धब्रह्मपरात्पर राम्॥१॥
कालात्मकपरमेश्वर राम्॥२॥
शेषतल्पसुखनिद्रित राम्॥३॥
ब्रह्माद्यामरप्रार्थित राम्॥४॥
चण्डकिरणकुलमण्डन राम्॥५॥
श्रीमद्दशरथनन्दन राम्॥६॥
कौसल्यासुखवर्धन राम्॥७॥
विश्वामित्रप्रियधन राम्॥८॥
घोरताटकाघातक राम्॥९॥
मारीचादिनिपातक राम्॥१०॥
कौशिकमखसंरक्षक राम्॥११॥
श्रीमदहल्योद्धारक राम्॥१२॥
गौतममुनिसम्पूजित राम्॥१३॥
सुरमुनिवरगणसंस्तुत राम्॥१४॥
नाविकधावितमृदुपद राम्॥१५॥
मिथिलापुरजनमोहक राम्॥१६॥
विदेहमानसरञ्जक राम्॥१७॥
त्र्यम्बककार्मुकभञ्जक राम्॥१८॥
सीतार्पितवरमालिक राम्॥१९॥
कृतवैवाहिककौतुक राम्॥२०॥
भार्गवदर्पविनाशक राम्॥२१॥
श्रीमदयोध्यापालक राम्॥२२॥
राम् राम् जय राजा राम्।
राम् राम् जय सीता राम्॥
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~अयोध्याकाण्डः~
अगणितगुणगणभूषित राम्॥२३॥
अवनीतनयाकामित राम्॥२४॥
राकाचन्द्रसमानन राम्॥२५॥
पितृवाक्याश्रितकानन राम्॥२६॥
प्रियगुहविनिवेदितपद राम्॥२७॥
तत्क्षालितनिजमृदुपद राम्॥२८॥
भरद्वाजमुखानन्दक राम्॥२९॥
चित्रकूटाद्रिनिकेतन राम्॥३०॥
दशरथसन्ततचिन्तित राम्॥३१॥
कैकेयीतनयार्थित राम्॥३२॥
विरचितनिजपितृकर्मक राम्॥३३॥
भरतार्पितनिजपादुक राम्॥३४॥
राम् राम् जय राजा राम् ।
राम् राम् जय सीता राम्॥
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~अरण्यकाण्डः~
दण्डकवनजनपावन राम्॥३५॥
दुष्टविराधविनाशन राम्॥३६॥
शरभङ्गसुतीक्ष्णार्चित राम्॥३७॥
अगस्त्यानुग्रहवर्धित राम्॥३८॥
गृध्राधिपसंसेवित राम्॥३९॥
पञ्चवटीतटसुस्थित राम्॥४०॥
शूर्पणखार्तिविधायक राम्॥४१॥
खरदूषणमुखसूदक राम्॥४२॥
सीताप्रियहरिणानुग राम्॥४३॥
मारीचार्तिकृदाशुग राम्॥४४॥
विनष्टसीतान्वेषक राम्॥४५॥
गृध्राधिपगतिदायक राम्॥४६॥
शबरीदत्तफलाशन राम्॥४७॥
कबन्धबाहुच्छेदक राम्॥४८॥
राम् राम् जय राजा राम् ।
राम् राम् जय सीता राम्॥
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~किष्किन्धाकाण्डः~
हनुमत्सेवितनिजपद राम्॥४९॥
नतसुग्रीवाभीष्टद राम्॥५०॥
गर्वितवालिसंहारक राम्॥५१॥
वानरदूतप्रेषक राम्॥५२॥
हितकरलक्ष्मणसंयुत राम्॥५३॥
राम् राम् जय राजा राम् ।
राम् राम् जय सीता राम्॥
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~सुन्दरकाण्डः~
कपिवरसन्ततसंस्मृत राम्॥५४॥
तद्‍गतिविघ्नध्वंसक राम्॥५५॥
सीताप्राणाधारक राम्॥५६॥
दुष्टदशाननदूषित राम्॥५७॥
शिष्टहनूमद्‍भूषित राम्॥५८॥
सीतावेदितकाकावन राम्॥५९॥
कृतचूडामणिदर्शन राम्॥६०॥
कपिवरवचनाश्वासित राम्॥६१॥
राम् राम् जय राजा राम् ।
राम् राम् जय सीता राम्॥
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~युद्धकाण्डः~
रावणनिधनप्रस्थित राम्॥६२॥
वानरसैन्यसमावृत राम्॥६३॥
शोषितसरिदीशार्थित राम्॥६४॥
विभीषणाभयदायक राम्॥६५॥
पर्वतसेतुनिबन्धक राम्॥६६॥
कुम्भकर्णशिरच्छेदक राम्॥६७॥
राक्षससङ्घविमर्दक राम्॥६८॥
अहिमहिरावणचारण राम्॥६९॥
संहृतदशमुखरावण राम्॥७०॥
विधिभवमुखसुरसंस्तुत राम्॥७१॥
खस्थितदशरथवीक्षित राम्॥७२॥
सीतादर्शनमोदित राम्॥७३॥
अभिषिक्तविभीषणनत राम्॥७४॥
पुष्पकयानारोहण राम्॥७५॥
भरद्वाजादिनिषेवण राम्॥७६॥
भरतप्राणप्रियकर राम्॥७७॥
साकेतपुरीभूषण राम्॥७८॥
सकलस्वीयसमानत राम्॥७९॥
रत्नलसत्पीठास्थित राम्॥८०॥
पट्टाभिषेकालङ्कृत राम्॥८१॥
पार्थिवकुलसम्मानित राम्॥८२॥
विभीषणार्पितरङ्गक राम्॥८३॥
कीशकुलानुग्रहकर राम्॥८४॥
सकलजीवसंरक्षक राम्॥८५॥
समस्तलोकाधारक राम्॥८६॥
राम् राम् जय राजा राम् ।
राम् राम् जय सीता राम्॥
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~उत्तरकाण्डः~
आगतमुनिगणसंस्तुत राम्॥८७॥
विश्रुतदशकण्ठोद्भव राम्॥८८॥
सीतालिङ्गननिर्वृत राम्॥८९॥
नीतिसुरक्षितजनपद राम्॥९०॥
विपिनत्याजितजनकज राम्॥९१॥
कारितलवणासुरवध राम्॥९२॥
स्वर्गतशम्बुकसंस्तुत राम्॥९३॥
स्वतनयकुशलवनन्दित राम्॥९४॥
अश्वमेधक्रतुदीक्षित राम्॥९५॥
कालावेदितसुरपद राम्॥९६॥
आयोध्यकजनमुक्तिद राम्॥९७॥
विधिमुखविबुधानन्दक राम्॥९८॥
तेजोमयनिजरूपक राम्॥९९॥
संसृतिबन्धविमोचक राम्॥१००॥
धर्मस्थापनतत्पर राम्॥१०१॥
भक्तिपरायणमुक्तिद राम्॥१०२॥
सर्वचराचरपालक राम्॥१०३॥
सर्वभवामयवारक राम्॥१०४॥
वैकुण्ठालयसंस्थित राम्॥१०५॥
नित्यानन्दपदस्थित राम्॥१०६॥
राम् राम् जय राजा राम्॥१०७॥
राम् राम् जय सीता राम्॥१०८॥
राम् राम् जय राजा राम् ।
राम् राम् जय सीता राम्॥

॥इति नामरामायणम् सम्पूर्णम्॥
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नाम रामायण में सभी सातों काण्ड समाहित हैं।


रामायण मनका 108 की ही तरह संस्कृत के इस छोटे-से स्तोत्र का पाठ प्रभु राम की कृपा आकृष्ट करने का अद्भुत उपाय है।  विशेषतः भारत के दक्षिणी क्षेत्रों में नाम रामायण का बहुत प्रचार-प्रसार है। 
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#AYODHYA

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जय जय जय महिषासुर मर्दिनी नवरात्रि के अवसर पर भगवती मां जगदम्बा संसार की अधिष्ठात्री देवी है. जिसके पूजन-मनन से जीवन की समस्त कामनाओं की पूर...