Sunday, 18 December 2022

श्रीविष्णुपञ्जरस्तोत्रम्

रुद्र उवाच:-
संसारसागराग्धोरान्मुच्यते किं जपन्प्रभो। 
नरस्तन्मे परं जप्यं कथय त्वं जनार्दन ॥

हरिरुवाच - 
प्रवक्ष्याम्यधुना ह्येतद्वैष्णवं पञ्जरं शुभम्।
नमोनमस्ते गोविन्द चक्रं गृह्य सुदर्शनम् ॥ १॥

प्राच्यां रक्षस्व मां विष्णो ! त्वामहं शरणं गतः ।
गदां कौमोदकीं गृह्ण पद्मनाभ नमोऽस्त ते ॥ २॥

याम्यां रक्षस्व मां विष्णो ! त्वामहं शरणं गतः ।
हलमादाय सौनन्दे नमस्ते पुरुषोत्तम ॥ ३॥

प्रतीच्यां रक्ष मां विष्णो ! त्वामह शरणं गतः ।
मुसलं शातनं गृह्य पुण्डरीकाक्ष रक्ष माम् ॥ ४॥

उत्तरस्यां जगन्नाथ ! भवन्तं शरणं गतः ।
खड्गमादाय चर्माथ अस्त्रशस्त्रादिकं हरे ! ॥ ५॥

नमस्ते रक्ष रक्षोघ्न ! ऐशान्यां शरणं गतः।
पाञ्चजन्यं महाशङ्खमनुघोष्यं च पङ्कजम् ॥ ६॥

प्रगृह्य रक्ष मां विष्णो आग्न्येय्यां रक्ष सूकर ।
चन्द्रसूर्यं समागृह्य खड्गं चान्द्रमसं तथा ॥ ७॥

नैरृत्यां मां च रक्षस्व दिव्यमूर्ते नृकेसरिन् ।
वैजयन्तीं सम्प्रगृह्य श्रीवत्सं कण्ठभूषणम् ॥ ८॥

वायव्यां रक्ष मां देव हयग्रीव नमोऽस्तु ते ।
वैनतेयं समारुह्य त्वन्तरिक्षे जनार्दन ! ॥ ९॥

मां रक्षस्वाजित सदा नमस्तेऽस्त्वपराजित ।
विशालाक्षं समारुह्य रक्ष मां त्वं रसातले ॥ १०॥

अकूपार नमस्तुभ्यं महामीन नमोऽस्तु ते ।
करशीर्षाद्यङ्गुलीषु सत्य त्वं बाहुपञ्जरम् ॥ ११॥

कृत्वा रक्षस्व मां विष्णो नमस्ते पुरुषोत्तम ।
एतदुक्तं शङ्कराय वैष्णवं पञ्जरं महत् ॥ १२॥

पुरा रक्षार्थमीशान्याः कात्यायन्या वृषध्वज ।
नाशायामास सा येन चामरान्महिषासुरम् ॥ १३॥

दानवं रक्तबीजं च अन्यांश्च सुरकण्टकान् ।
एतज्जपन्नरो भक्त्या शत्रून्विजयते सदा ॥ १४॥

॥ इति श्रीगारुडे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे विष्णुपञ्जरस्तोत्रं नाम त्रयोदशोऽध्यायः॥
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Thursday, 15 December 2022

|| शत्रुविध्वंसिनी_स्तोत्र ||

            || शत्रुविध्वंसिनी स्तोत्र ||

    विनियोगः- 
ॐ अस्य श्रीशत्रु विध्वंसिनी स्तोत्र मन्त्रस्य ज्वालाव्याप्तः ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीशत्रु-विध्वंसिनी देवता, श्रीशत्रु-जयार्थे (उच्चाटनार्थे नाशार्थे वा) जपे विनियोगः ।।

ऋष्यादि-न्यासः - 
शिरसि ज्वाला-व्याप्त-ऋषये नमः। 
मुखे अनुष्टुप छन्दसे नमः, 
हृदि श्रीशत्रु-विध्वंसिनी देवतायै नमः, 
अञ्जलौ श्रीशत्रु-जयार्थे (उच्चाटनार्थे नाशार्थे वा) जपे विनियोगाय नमः।।

कर - न्यासः - 
ॐ श्रीशत्रु-विध्वंसिनी अंगुष्ठाभ्यां नमः। 
ॐ त्रिशिरा तर्जनीभ्यां नमः। 
ॐ अग्नि-ज्वाला मध्यमाभ्यां नमः। 
ॐ घोर-दंष्ट्री अनामिकाभ्यां नमः। 
ॐ दिगम्बरी कनिष्ठिकाभ्यां नमः। 
ॐ रक्त-पाणि करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः।

हृदयादि - न्यासः  - 
ॐ रौद्री हृदयाय नमः। 
ॐ रक्त-लोचनी शिरसे स्वाहा। 
ॐ रौद्र-मुखी शिखायै वषट्। 
ॐ त्रि-शूलिनो कवचाय हुम्। 
ॐ मुक्त-केशी नेत्र-त्रयाय वौषट्। 
ॐ महोदरी अस्त्राय फट्।
फट् से ताल-त्रय दें (तीन बार ताली बजाएँ) 

और “ॐ रौद्र-मुख्यै नमः” से दशों दिशाओं में चुटकी बजाकर दिग्-बन्धन करें।

ध्यानम् - 
ध्यान निम्न प्रकार से है, इन बारह नामों का उच्चारण करते हुए देवी के स्वरूप का मानसिक रूप से मनन -चिंतन करते रहें -

ॐ शत्रुविध्वंसिनी रौद्री, त्रिशिरा रक्तलोचनी
अग्निज्वाला रौद्रमुखी, घोरदंष्ट्री त्रिशूलिनी
दिगम्बरी, मुक्तकेशी, रक्त-पाणी महोदरी ।

स्तोत्रम् -
“ॐ शत्रुविध्वंसिनी रौद्री, त्रिशिरा रक्तलोचनी।
अग्निज्वाला रौद्रमुखी, घोरदंष्ट्री त्रिशूलिनी।।१।।
दिगम्बरी, मुक्तकेशी, रक्त-पाणी महोदरी।”
एतैर्नाममभिर्घोरैश्च,शीघ्रमुच्चाटयेद्वशी॥२।।

                ॥ फलश्रुति॥ 
इदं स्तोत्रं पठेनित्यं, विजयः शत्रु नाशनम्।
सहस्त्र-त्रितयं कुर्यात्, कार्य-सिद्धिर्न संशयः।।३।।

विशेषः- यह स्तोत्र अत्यन्त उग्र है। इसके विषय में निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान अवश्य देना चाहिए-

👉 प्रथम और अन्तिम आवृति में नामों के साथ फल-श्रुति मात्र पढ़ें। पाठ नहीं होगा।

👉 घर में पाठ कदापि न किया जाए, केवल शिवालय, नदी-तट, एकान्त, निर्जन-वन, श्मशान अथवा किसी मन्दिर के एकान्त में ही करें।

👉 पुरश्चरण की आवश्यकता नहीं है। सीधे ‘प्रयोग’ करें। प्रत्येक ‘प्रयोग’ में तीन हजार आवृत्तियाँ करनी होगी।
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